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ज्ञानानन्दरत्नाकर
चौपाई। श्रीकंठ लंका को धाया । धवल कीर्ति लख अति हर्षाया ॥ सेन लिये तोलों खग आया । धवल कीर्ति सुन दूत पठायर ।।
दोहा। पुष्पोत्तर को तास ने समझाया बहु भाय ।
अरु पद्माभा की शसी गई कही तहां जाय । तात दोष ना श्रीकंठ का चरा मही या को प्रापन । जिन शासन का लहों आधार न कल्पित कहो वचन ॥२॥ लौट गयाखग कीर्ति धवल तब श्रीकंठको गीति दिखाय | निवास करने वानर द्वीप तिन्हे दीना शुभ राय ॥ श्रीकंठ तहां गये बसाया नगर फिहकपुर अति मुखदाय। वानरदेखे तहां बहु केलि करत नाना अधिकाय ॥ .
चौपाई। तिनने कपि पाले रुचिठान । तिनसे क्रीड़ा करत महान ॥ रचे चित्र तिनके गृह म्यान । रंगरंग के लख सुखदान ॥
दोहा । ता पीछे बहु नृप भये तिन भी कपि के चित्र । मंगलीक कार्य विप भाड़े मान पवित्र ॥ वास पूज्य के समय अमर प्रभु भो भूप सो सुनो कथन । जिन शासन का लहाँ आधार न कल्पित कहों वचन ॥ ३ ॥ तिनकी रानी डरी भयंकर देख चित्र कपिके तवरायः। ध्वजा मुकुट में कराग चित्र गूह के दये मिटाय ॥ ' तब से ये कपि केतु कहाये कपि वंश उत्पति सों आयः । वानर नाही नृपति नर विद्याधर हैं जानो भाय | .
चौपाई। सा कुल में बहु नृप गुणधाम | भये कहां तक लीजे 'नाम ।