Book Title: Gyanand Ratnakar
Author(s): Nathuram Munshi
Publisher: Lala Bhagvandas Jain

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Page 63
________________ ज्ञानानन्दरत्नाकर । भूमो बहु चौरासी फेरा । ज्ञान विन कही नसुख हेरा ॥ मात अब कृपा दृष्टि कीजे। नाथूराम को सुबोधदीजेजी। जिनेन्द्र स्तुति ४२॥ है करुणा सागर त्रिजगत के हित कारी। लख निज शरणागत हरो वि. पति हमारी || टेक ॥ जो एकगाम पति जनकी विपदा टारे । मनोवांछित जन के कार्य क्षणक में सारे । तो तुम त्रिभुवन के ईश्वर विश्व पुकारे । विश्वास भक्त ताही विधि उर धारे । फिर भूलगये क्यों ईशहमारी वारी, लख निज शरणागत हरो विपत्ति हमारी ॥ १॥मैं निज दुःख वर्णनकरों कहाजगस्वामी नुमतो सब जानत घटघट अन्तर्यामी । तुमसमद” सर्वज्ञ यशस्वीनामी, मम. हरो अविद्या प्रगट मुख आगामी । वरभक्ति तुम्हारी लगे हृदयको प्यारी, लख निज शरणागत हरो विपत्ति हमारी ॥ २ तुम अधयोद्वारक विरदजगत में छाया, मैं मुनासन्त शारद गणेश जोगाया । यासे आश्रय तक शरण तुम्हारे पाया, सवहरो हमारा शंकट करके दाया ।। तुमको कुछनहीं अशक्य विपुल वलवारी, लख निज शरणागत हरो विपत्ति हमारी ॥ ३ ॥ ज्यों मात पिता नहीं शिशु के दोप निहारे, पाले सप्रेम अरुसर्व आपदा टारें । तुम विश्व पिता त्योंही हम निश्चय धारें, यासे शरणागत होके विनय उचारें । जन. नाथूराम यह यांचत बारम्बारी, लख निज शरणागन हरोविपत्ति हमारी ४॥ शाखी। संसार सकल असार है नहीं इरास प्रीति लगाइये । झा सकल व्यवहार है नहीं इष्ट जान ठगाइये ॥ इंन्द्रिय विषय विप तुल्य है नहीं इनसे चिन पगाइये । जिन भक्त नाथूराम परमात्मा के नित गुण गाइये ॥

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