Book Title: Gyanand Ratnakar
Author(s): Nathuram Munshi
Publisher: Lala Bhagvandas Jain

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Page 71
________________ ज्ञानानन्दरत्नाकर। लाख योनि में फिरा बहु चेरा, जहां गया तही तुझे काल वली ने पेरा, भग पान भक्ति विन कौन सहायक तेरा, अब कर आत्म कल्याण मोह तज घटका Iचिरकाल भजन विनतू त्रिभुवन में भटफा ।। १ ।। खुत तात मात दारादिक सब परिवार, तनु धन यौवन सब बिनाशीक है प्यारे, मिथ्या इन से स्नेह लगावत क्यारे, ये हैं पत्थर की नाव हुवावग हारे, इन बार वार तोहि अव सागर में पटका, चिर काल भजन दिन तू त्रिभुवन में भटका ॥२॥ तू नर्क वेदना दुर्गति के दुःख भूला, नर पशुहो गर्भ मझार अधोमुख झूला, अब किंचित मुख को पाय फिरे तू फूला, माया मरोर से जैसे वायु वधूला, तू मानत नहीं बार बार गुरु इटका. चिर काल भजन बिन तू त्रिभवन में भटका ॥ ३ ॥ अव पति राग का मार्ग तू ने पाया, जिन रान भजन कर करो सुफल नर काया, त भ्रमे अकेला यहां अकेला पाया, जावेगा अकेला किस की दूढे छाया, कहैं नाथूराम शठ क्यों ममता में अटका, चिर काल भजन विन तू त्रिभुवन मे भटका ॥४॥ शाखी ।। धन्य धन्य जिन देव जिन ने निज धर्म प्रकाशा। जिस की सुर नर पशु भीष के सुन वे की आशा। घरे पंच कल्याण भेद सव. सुनो खुलाशा। गर्भ जन्म तप ज्ञान किया निर्वाण में पासा। दौड। भव्य ये सार पंच कल्याण, धरें जो चौवीसौं भगवान । गर्भ जन्म तप ज्ञान रु निर्वाण. सुरासुर पूर्जेतजअभिमान। जिन के सुनने से होय वर बुद्ध, नाथू पावे शिव मगशुद्ध । ऋषभ देवके पंचकल्याण ।५२। नाभि नदन तज सदन चले वन शिव रमणी को वरण, आदि प्रभु प्रगटे ता

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