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ज्ञानानन्दरत्नाकर। मुनस वचन लंकेश कहै प्रिया तुमसम और नहीं नारी। यह तो निश्चय मुझे पर कारण एक लगा भारी ॥ इम क्षत्री रणशूर हरी सिय यह जानी दुनियासारी। जो सिय भेजों राम तट तो देह नृप गण तारी।।
॥शेर॥ जानि हैं कायर मुझे नृप गण सभी अभिमान से । यासे लड़ना योग्य है रघुवीर संग धन वाण से ॥ जीति कर अपों सिया प्यारी जो उनको पाण से । यश होय मेरा विश्व में वेशक सिया के दान से ॥ नाथूराम जिन भक्त कहै त्रियशुभ न चाह संग्रामकोई। जनकसुता को पावो कुशल इसी में घामकीहै ॥ ४ ॥
॥सीताहरण की लावनी ३८॥
जनकसुता का हरण श्रवण सुन को न नीर गमें लाया । वर्णन तिप्तका मुनो जैसा जिन आगम में गाया ॥ टेक ॥ दंडकवन में धनुष वाण ले सैर करन चाले लक्ष्मण | सुगंध मारुन लगत तन भयो प्रमुद लक्ष्मणका मन ॥ वश भिड़े पर सूर्य हास्य असि दृष्टि पड़ा चर्चित चन्दन । लेके हाथ में लक्षण ने काटा वह भिड़ा सघन ॥
॥चौपाई॥ खरदूषण व शंबुकुमार । वामें साधत या असिसार॥ सिद्धि भयाया ताही वार । रक्षक नाभास यक्ष हजार ।।
॥दोहा॥ पूजा कर मुर खड्ग की धरा भिड़े पर आन । पुण्य योग लक्ष्मण लिया सो वर हाथ कृपाण ॥ कटाशं शिर साथ भिड़के सोना लक्षमण लखपाया।