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ज्ञानानन्दरत्नाकर। यदपि भोग भोगो युग माई । तदपि सिया मुधि ना विसराई ।।
॥दोहा॥ युगसम चीते दिवस इक अति शोकित रघुवीर । तहां विराधत लक्ष्मण भधिक बंधावें धीर । नाथूराम जिनभक्त जानकी रूप राम हग में छाया । तिसका वर्णन सुनो जैसा लिन आगप में गाया ॥८॥
॥राक्षस वन्शीन की उत्पत्ति ३९॥
अनित नाथ के समय मेघ बाहन राक्षस लंकापाई । तिसका वर्णन मनो जो श्रवणों को आनन्द दाई ॥ दे ॥ विजयार्द्ध दक्षिण श्रेणी में चक्र वालपुर नबसे । नृप पूर्ण धन मेघ वाइन ताके शुभ पुत्र लसे ॥ तिलक नगर का नृपति मुलोचन सहस्र नयन सुतता तन से । कन्या उत्पल मती दोनों जना मुन्दर उनसे ॥
॥ चौपाई॥ उत्पनमती पूर्ण चनजाय । निजसुतको जांची गनलाय। बचनानिमित्ती के मुनराय । दई सगर को सो होय ॥
॥दोहा॥ तब पूर्ण घन सेनले इना सुलोचन राय । सहसू नयनले कहिनको छिपा विपिन में धाय ॥ पूरण घनने, कन्या की खातिर नगरी सव दुढवाई ! तिसकावर्णन सुनो जो श्रवणोको आनंददाई ॥ १ ॥ सगरचक्रपतिको इक दिन मायामय हयने हरासही। घरा विपिन में वहीं लख उत्पलमती भ्रातसे कही। चक्रीके तटसहस्र नयनने जाय बहिन परनायवही । अति प्रादर से युगल श्रेणी की पाई आप मही ।।