Book Title: Gyanand Ratnakar
Author(s): Nathuram Munshi
Publisher: Lala Bhagvandas Jain

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Page 55
________________ ज्ञानानन्दरत्नाकर। ॥चौपाई॥ सहलनयन की वलपारे । पूर्ण वन मारा रणपाले ॥ भगामेष वाहन घबराके । समोशरण में पहुंचा जाने ।। ॥दोहा॥ भजित नाय को बंदि के पैठा शगता गन । सास नयन के भटतहां देख गये निज यान ।। तिनके मुख मुन सास नयन भी मया जहांजित जिनराई । विसका वर्णन मुनो नो श्रवणों को आनन्ददाई ॥२॥ समोशरण में ज़ाय भवान्तर पूछसभी निर उये । यह मुन गतम इन्द्र प्रमुदित मन भीग मुभीम भएँ । कहा मेय वाहन से धन्यतू अपतेरे सब दुःख गये। श्रीजिनवर के चरण तल जोतेरे चमु अंग नये ।। ॥चौपाई॥ हम प्रसन्न तोपर खगरा। मुनो वचनं मरे मन जाय ।। राजस द्वीप वसो तुम गाय । वहभू तुपको अति सुखदाय ॥ ॥दोहा॥ लवणोदधि के मध्य है राक्षस द्वीप प्रधान । लम्मा चौड़ा सातसौ योजन तास प्रमाण ॥ सयद्वीपों में द्वाप शिरोमणि नास भीति जगमें छाई । तितका वर्णन मुनों जो अत्रणों को आनन्ददाई ॥ ३ ॥ ताके मध्य विकटाचल योजन पचास ताका विस्तार । ऊंचा योजन कहा नवतास तले नगरी सुखकार ॥ लंका योजन तीम वहां जिन भवन बने चौरासीसार। सपरिवार से तहां निवतो तुम अरिंगण का भपटार । ॥चौपाई॥ अरु पाताल लंक शुभयान । गैर शरण का है मुमवान ।

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