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ज्ञानानन्दरत्नाकर। को थायरा पि रनाको विक्रिया रिद्धिमे बावन रूप धरा ॥ १२ ॥ करके संकलर राज्य दिगा नृप भाप रहा बाकर रनियास । तप नृप पनि ने रवीनर मेध यज्ञ करने मुनि नाश ॥ हाद मांस पल रोपादिक अपवित्रपदार्य महा कुनाम । चागे भोरमे नलाये मुनि के धुम्रा छायो आकाश || देनलगा नाना विधि दाख मुनि को कैप सहित अति क्रोधभरा । ऋषि रक्षाको त्रिक्रिया कि से नारन रूपधर ॥ १३ ॥ मियित्नापरी के वनमें मुनिवर सार चन्द्रधारें ये ध्यान | अवण नक्षगर देख कंपित मनि अवधि विचारा ज्ञान || हाहामुनि गण जप्टमी पनि यो गरु बनन कहे दाखजान । कुछ अन्तर से सुने सो पुष्पदंग चल्नक निज कान || बोलागुरुने कहा किसको उपसर्ग होय किन दुष्ट करा । अपि रक्षाको विक्रिया रिद्धि में पावन रूपधरा ॥ १४ ॥ बोले गरु प्राचार्य पपन मिन के वान शन पुनियर संग । सहें परीपह हस्तिनापुर
म में वलिकर निन अंग ॥ पुष्पदंत तब कहीं शनि कछहो उपाय कहिये inमंग । नव गुरु माने तपही संपर गामी खगपति वरढंग ॥ विष्ण कुमार सुभाश गिरिगर उपजीविया दिवरा । ऋषि रक्षाको विक्रिया रिद्धिसे पाचन माग ॥ १५ ॥ समर्थ उपसर्ग निवारण पप्पदन्त मुनगया तुरन्त नमसार कर सुनाये ममाचार विधिसे गुणवन्त ॥ पर्खन को मनि शंहपसारी गिग समुद्र में शिक्षा संत । तब मुनि पहुंचे हस्तिनापुर में पद्मरय के तटसन काही पाचनति के तू उपना घरे वापीश्वरा । ऋपि रक्षाको विक्रिया गिहिये पावन पधरा ॥ १६ ॥ हाथ जोड़ तबकही पद्गस्य कार्य नहीं यह में पीना । वचन द्वारके सान दिन राज इष्ट पलिको दीना ॥ ता खलने नर मेष रची यह हा निवास निज गृहलीना । बम मनियरने घरा पावन स्वरूप द्विज अविना ! पदन घेद धनि पहुंचे चलितट मांगीनि गतीन धरा ।
शापि माको विक्रिया रिद्धिमे वाचन रूपवरा ॥ १७ ॥ वोला बलि मांगो गनाशविन नच्छ यांचना क्या करते । द्विज संतोपी कही इच्छा न अधिक म व ॥ तब त जनमे किया संकल्प द्विज करपर अपने करते । त्रय दग पृथी दइ मनुष्ट कहा मुख द्विज बरते ॥ तत्र मनि दीर्घ शरीर बदाया देखत बाल मन मृद सा । ऋपि रक्षाको विक्रिया रिद्धि से वायन रूपधरा ॥ १८ ॥ आपण नदि पुनी नक्षत्र शम श्रवण मान वलिका मारा । पहिला पदले मेरुसे