Book Title: Gyanand Ratnakar
Author(s): Nathuram Munshi
Publisher: Lala Bhagvandas Jain

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Page 36
________________ ६४ ज्ञानानन्दरत्नाकर। ना तब तलक नित निज गुण गाना चहिये ॥ टेक ॥ आर्य क्षेत्र भानक कुल लहि वृथा न बिहकाना चहिये । जप तप मंयम ने रिन नहीं काल जाना चहिये ॥ भूमे दीर्घ संमार न पाया पार चिंत लाना चहिये । पुरुषा थं को को क्यों कायर वन जाना चाहिये ॥ बार वार फिर मिले न अवसर यह शिक्षा माना चहिये । जब तक शिव ना तब तलक निन जिन गुण गाना चहिये ॥ १ ॥ आप करो परणाम शुद्ध औग के कावाना चहिये । सदाधर्म में रहो लवलीन न विमगना चहिये | धर्म समान मित्र ना जग में यह उर में लाना चरिये । यघ मम रिपु ना ताहि निज अग न परसाना चहिये ।। पर दुश्व देख सोमत मनग क्षमा भान ठाना चाहिये । जर तक शिवना नव नलक नित जिन गुण गाना चाहिये ॥ २ ॥ साधलाख हर्ष को उर म. लिन माव हाना चहिये । अंग हीन को देख कर भून न खिजवाना चाहिये । निज पाको पहिचान करों इम में होना दाना चहिये । उसी ज्ञान विन भूमे चिा अब निज पहिचाना चाहिये । दुःखी दन्द्रिी को दुःख देकर कभी न क ल्पाना चाहिये । जब तक शिव ना तब तलक नित जिन गुण गाना चाहिये। ३ ॥ गुण वृद्धो की विनय करो नित मान विटप दाना चहिये । पर विभनि को देख मन कभी न ललचाना चहिये । मिथ्या रचन कहो मत छल से सकन का खाना चहिये । अमक्ष भक्षण तो चित शील में निज माना चहिये ।। नाथूराम निज शक्ति प्रगट कर बनना शिवगना चहिये । जब तक शिव ना तब तलक नित जिन गुण गाना चहिये ॥ ४ ॥ ॥ दूसरा हितोपदेश २८॥ प्रभ गुण गानवरो निशि बासर आलस लाना ना चहिये । करण विषय के स्वाद में चित्त पगाना ना चहिये ॥ टेक || नर तन चिन्तामणि पाके यह वृथा गमाना ना चहिये । नान बूझ के गोते भवोदधि में खाना ना चहिये ॥ उत्तम श्रावक कुल पाके फिर अभक्ष पाना ना चाहिये । लोक निंद्य जो नशे तिन चिन साना ना चाहिये । कुविशन त्यागलाग निन पथसे शीख भुलाना ना चहिये । करण विषप के स्वाद में चित्त पगाना ना चहिये ॥ १ ॥ हठ

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