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ज्ञानानन्दरत्नाकर नक सो शीलवती । मुरनर जिसको जजे गुणगावें वेद पुराण यती ॥ ५ ॥ ।। मतवारों का मतवारापन हरने को लावनी ३२॥
गिज हितका नहीं विचार जिनको पिथ्या विषादकरें। निन निनमत में मत्तम गतबारे पकवाद करें ।। टेक || मतवारा पन लगा जहांत कैसेवर्वे न्याय विवेक | पक्षपात में लीन हो वृथा मलाप करें गहिटेक ॥ कोई कहै मेरा मतसच्चा कोई कर मेरासत एक । अपनी अपनी में मग्न करें बड़बड़ साभेक॥
॥चौपाई॥ अधम काल में विशेष ज्ञानी । रहे नहीं प्रगटे अभिमानी ॥ पक्ष पात से ऐंचा तानी । करें सत्य मतको दे पानी ॥
॥दोहा॥ जहां पक्ष तहँ न्याय ना न्याय न तहां अधर्म । जह अधर्म तह दुरित पय दुर्गवि स अशर्म ॥ सोविचार कुछनहीं हृदयमें पक्षपात नि:स्वादकरें। निजनिज मतमें मत्तप्तब मतवारे वकबादकरें ॥१॥ जबसे यह कलिकाललगामरुक्षत्रीलगे भनीतिकरन। क्षिति रजाको त्याग कर दुर्विसनों में लगे परन ।। तव से तेज प्रताप गया दासी सुत उपने नीच वरन राजपुर से बने रजपूत लगे मागन तन रन ॥ २॥
॥ चौपाई॥ राज भार तब कौनउठावे । युद्धसुनत जिनको स्वरमावे ॥ ऐसा अप्रवन्ध जब पावे । तब कैसे ना शत्रुसतावे ।।
॥दोहा॥ क्षत्री के दो धर्म है प्रथमं होय रण भूर ।