Book Title: Gyanand Ratnakar
Author(s): Nathuram Munshi
Publisher: Lala Bhagvandas Jain

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Page 38
________________ ज्ञानानन्दरत्नाकर। गुण मंडित भाषे वेद पुराण में है । देह नेह विन भटल अविचल श्राकार पुमान में है ॥ सर्व ज्ञेय प्रति भासत ऐसे ज्यों दर्पण दान में हैं । ज्ञान रस्मि के पुंज ज्यों किरणे भानु विमान में है ॥ गुण पर्याय सहित युग पत द्रव्ये जानत आसान में है। सर्व विश्व के ज्ञेय प्रति भासत जिन के ज्ञान में है ॥ ३ ॥ तीर्थकर गुण वर्णत जिनके जो प्रधान पतिमान में हैं। छद्मस्थन में न ऐसे गुण काहू पदयान में है ।। गुण अनन्त के धाम नहीं गुण ऐसे और महान में हैं । धन्य पुरुष वे जो ऐसे घारत गुण निज कान में हैं ॥ नाथूराम जिन भक्त शक्ति सम रहैं लीन गुणगान में है । सर्व विश्व के ज्ञेय प्रति भासत जिन के ज्ञान में हैं ॥ ४ ॥ ॥ चन्द्रगुप्तके सोलह स्वप्न ३०॥ सोनह स्वप्न बखे पिछली निशि चन्द्र गुप्ति नृप अचरज कार | भद्रबाहु ने कहे तिनके फल सो वर्तते अबार | टेक ॥ सुर द्रुप शाखा भंग लखा सो क्षत्री मुनि बून नहीं धरें। अस्त भानु से अंग द्वादश पनि ना अभ्यास करें । सुर विमान लौटत देखे चारण मुर खग यांना विचरें । बारह फन के सर्प से बारह वर्ष अकाल परें । सचिदू शशि से गिनमत में बहु भेद होय ना फेर लगार | भद्रबाहु ने कहे तिनके फल सो वर्तते अवार ॥ १॥ करि कारे युग लड़त लखे सो वांछित ना बर्षे जलधार । अगिया चमकत लखा जिन धर्म महात्म्य रहै लघुनर ॥ सूखा सर दक्षिण दिशि तिस में आया किचित नीर नजर । तीर्थ क्षेत्र से उठे वृष दक्षिण में रहसी कुछ घर ॥ गजपर कपि बारूद लखा कुल हीन नृपों का हो अधिकार । भदूवाहु ने कहे तिनके फल सो वर्तते प्रवार ||२|| हेम थाल में स्त्रान खीर खाता सो श्री गृह नचि है नृप सुत उष्ट्रारूद सो मिथ्यागार्ग भूप बहै । विगशित पालखा कूड़े में जैन धर्म कुल वैश्य गहै । सागर सीमा तजी सो भूपतिपय अनीति ल है ॥.रथमें बच्छे जुते सो बालकपन में धार व्रतका भार । भद्रबाहुने कहे तिनके फल मो वर्तवे अवार ॥ ३ ॥ रत्न राशि रजसे मैली सो यती परस्पर हो झगड़ा । भूत ना

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