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ज्ञानानन्दरत्नाकर । मार्ग में मुनिचा सागर । धावत छेड़ा नगर से बाद किया मंत्रित पदधर ।। हार गये चारों द्विज मुनिसे गान गलतही आये घर । कुन सागर भी निकट आचार्य के पहुंचा जाकर ।। नएस्कार कर लसुनाया मार्ग में गुरु को सगरा ऋषि रक्षाको विक्रिया ऋद्धि से पावन कर घरा ॥ ६ ॥ सुनत बचन गुरु कही उपद्रव का कारण तुमने कीना । इससे आप तप बाद स्थान धरा तप तो जीना ॥ तच श्रुमागर गुरु श्राजाले निशि में ध्यान तहां दीना । चारों मंत्री दुष्टता धार चने अमि ले हीना ॥ श्रुन सागर को देखन बोले यही शत्रु मुनि हमरा । ऋषि रक्षा को विक्रिया रिद्धि मे बावन रूप धरा ॥ ७ ॥ बोलावलि चारों मित एकही बार हनो या के तलवार । बाट बाावर लगे हत्या ऐसा खल किया विचार ॥ खड्ग उभारत कीले नगर रक्षक सुरने चारों अयकार प्रभात पुरजन देख खल मत्रिन को भाषी विकार || तव नृपने काला कराय मुख खरचनाय दीना निकरा । ऋ प रक्षाको विक्रिया रिद्धि से वावन रूपरा ८ ॥ थान भ्रष्ट हो चारोंभ्रमने हस्त नागपुर पहुचे चल | महा पद्म तृप उभय सुनयुन चक्री राजे अति मल ॥ छोटा विष्णु कुमार पद्म रथ गुरु सुत्त दोनो महा विमल । नृप तपधारा विष्णु मृत सहित लई दिक्षा निर्मल ।। करे पद्मस्थ राज तहा चारी मंत्री पद जाय वरा । ऋप रक्षा को बिक्रिया रिद्धि से वावन रूप धरा ॥ ९ ॥ दुर्वन्न देख पगरथ को बलि चोला तुम्हें कहा खटका । कैसे दुरल भये महराज कहो कारण घटका ।। हमसे मत्र पाय जगति में कौन कार्य ऐसा मटका । भेद बताओ नाथजी क्यों खाया ऐमा झटका || कही भूप हरिवन नृप आज्ञा भगकरें सेवक मगरा । ऋषि रक्षाको विक्रिया रिद्धिसे बावन , रूपयरा ॥ १० ॥ नृप प्राज्ञा बतिपाय सेन ले लाया वांध कर हरि वलको । देख पद्मस्य कही होकर प्रसन्न मागों वलको । जो मांगो सो लेहु अभी तुम लाये पकड़ चैरी खलको । तबबलि बोला वचन भंडार र अटके पलको सनय पाय प्रभु यांचना करहों जबजानों कार्य अवरा । ऋषि रक्षाको वि क्रिपारिद्धि से व.वन रूप धरा ॥ ११ ॥ स्वीकार वचकर नृप बोला बहुत मली लीजो वही । वहा कुछ दिनों अकंपन सहित ऋपी आये सवही ।। चारों द्विर्ग अति र बिचारा मनि आये जाने जवही । तब वलि वोलासात दिन राज नृपत्ति दीजे अबही ॥ इमें काम अब प्रति आवश्यक मात दिवस