Book Title: Gyanand Ratnakar
Author(s): Nathuram Munshi
Publisher: Lala Bhagvandas Jain

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Page 23
________________ ज्ञानानन्दरत्नाकर। हपधर भोगो शिव संदरि प्यारी ॥ १ ॥ मार्दव आर्यव सत्य और संतोष चार मेरे भाई । शुभतीनों लेश्या वहिन जाके जीवों को सुखदाई ॥ जप तप संयम ब्रह्मचर्य इत्यादि कुटुम्सी अधिकाई । ममशखी है दिक्षा जिसे गहि भविजन शिव सुन्दरि पाई ।। तुम चेतन भतार कृपति उरधार वनेहो अभिचारी | मेरे रंग राचो हपंधर भोगोशिव सुंदरि प्यारी ॥ २ ॥ शुद्ध भाव वैराग्य पिताथारा प्रसिद्ध जगके अन्दर । तिसको तुम सेवो नाथ पैहो निश्चय तुमशिव मंदर ।। पंचपरम गुरु भ्रात तुम्हारे महा शूरगुण समन्दर । निनको तज स्वामी कुत्ति अरधार पर्ने भिक्षुक दरदर ॥ धर्म शुक्ल मित्रों को चीन्हों जो अनंत वल क धारी। मेरे रंग राचो हर्षधर भोंगो शिव सुवरि प्यारी ॥ ३ ॥ सिद्ध शिला माता को नवाकर उसी के गोद विराजो तुम । दर्मति दुःखदायन नायका इस का साथ तजमानो तुम ।। नाना विधिके यत्न बनाऊं जो मेरे संग राजो तुम ता निल कुटुम्ब में दरावर बैठ कभी ना लाजो तुम ॥ ऐसे शुद्ध कुन छोड़ कुमति उरवरी बड़ा अचरज भारी । मेरे रंगगचो हपंपर भोगो शिव सुंदर प्यारी ॥ ४ ॥ अष्ट कय तरु काट कटीले मूल सहित सूखे बाले । तिनकी रच होली जलानो ध्यान अग्नि से तत्काले ॥ पाप पंक जो भई इकट्ठी उसे फेकदो निकाले । अधपकी धुल को उड़ाकर स्वच्छ करो घटगृह हाले । क्षमारंग छिड़को दोनोंकर पकड़ प्रेम की पिचकारी । मेरे रंगराचो हर्षधर भोगो शिव सुदरि प्यारी ।। ५ । लोभ लाख को कुश कुमकुमें अघ अवीर भरकर मारो । मिथ्यास पंचों के बदन पर फोड छार छार करडारो ॥ हत्यारे हुरिहों का लखो काजल पालंक से मुंहकारो । मोवर गुमान से भी प्रत्यक्ष नारकी पद धारो ॥ चितपय चिरतीय घरै घर फजीहत फाप मची भारी ! मेरे रंग राचो हर्प धर भोगो शिव सुन्दरि प्यारी ।। ६ ॥ हिंसा होली तज ऐसी निज गुण गुलाब का रंग कगे। आचरण अतर शुभ लगा गंपित शुद्धात्म अंग करो ॥ मन मृदंग तंबूरा तनकी डुलन डोर कस तंग करो। सुरति की सारंगी मनीरा गधुर वचन के संगकरो ॥ राग रास देखो घर बैठे नाचत फिर फिर संसारी । मेरेरंग राची पधर भोगो शिव शंदरि प्यारी ।। ७ ॥ अष्ट मूल गुण मेवासे घट र सुगंधित धाराजी । प्रत्यक्ष न दीखे तुम्हें यह कुमति कटिल भूम डारागी ॥ अवमी कुमति कुटिल कुलया से कीजे नाथ किनाराजी । मुझ

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