Book Title: Gyanand Ratnakar
Author(s): Nathuram Munshi
Publisher: Lala Bhagvandas Jain

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Page 16
________________ ज्ञानामन्दरत्नाकर । को नाऊं । तुमसे दाना पाय प्रभु और किसे जांचन जाऊं । अन्य देव सव रागी द्वैषी तिन्हे न मैं स्वप्ने धाउ । यही मनोर्थ है मेरा दर्श संदा थारा पाऊ ॥ शखो अपने पास जान निज दास न अव पाऊं तरसन । मै जन धाराहमारा हरो कष्ट प्रभुहो परसन ॥ १ ।। युगल नयन दिन रैन तुम्हारे दर्शन की कररहे है पाश । युगल चरण का मनोर्थ यही चलें पहुंचे तुम पाम || दोनोंकर बम द्रव्य मिलाकर तुम पद पूजन चाहत खास । द्रव्य भाव मन तुम्हरे युगलचाण का चाहत वात ॥ रसना इच्छा करसदा यह तुम गुणमुख लागे वरसन में जन थारा हमारा हरो कण्ट प्रभुहो परसन ॥ २ ॥ अवगुण की खान अ धिकतर पर थारेही गुणगाता हूं। स्वप्नान्तर भी अन्य देवको न शीस नवाताई ॥ क्षण २ लेतानाम तुम्हारे दर्शन को ललचाता हू । अवमर पाता तभी त. काल दर्श को आताहूं ॥ स्वप्न में भी देखत तुम दर्शन मन मेगलागत हर्पण। मै जन थारा हमारा हरो कष्ट प्रभुहो परसन ॥ ३॥ तबतक दर्शन मिनें निरतर जबतक नाशकरों वसुकर्म । पाऊँ वासा मुक्ति मंदिर में यही श्राशा ममपर्म ।। बहुत दिनों से करों वीनती पलेनहीं दर्शन विन धर्म। हे विश्वेश्वर दासको सुनो दाद राखो अब शर्म । नाथूराम को चरण शरण निज राखलेहु कर आकर्षन । मैं जन थारा हमारा हरो कष्ट प्रभुहे। परसन ॥ ४ ॥ ॥ चौसड़की लावनी १४॥ चौरासी नख योनि में चौसड़ खेलत काल अनादि गया। चारों गति के चार घरसे न अभी तक पार भया । टेक ॥ देवधर्म गुरु रत्नत्रय तीनों काने बिन पहिचाने । आराधना चारो नहीं हिरदय में धरे चारो काने ॥ पंचमहा चूत पंजडी बिन नहीं पाया पंचम निज थाने । पटमत्त छकड़ी के वोध विन रहा अभी तक अज्ञाने ।। पंच दुरी सत्ताके बोध बिन सत्ताका ना सत्त्यछया । चारों गनि के चार घरसे न अभीतक पार भया ।। १ पांचतीन अथवा छ: दो अट्ठा के बिना जाने भाई । यसकर्म न नाशे नहीं बसुगुण विभूति अपनी पाई ।। पांच चार अथवा छतीन जाने पिन नवनिधि विनाई। नवग्रीवक जाके चतुर्गति फिर

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