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प्रत्यक्ष शब्द द्वयर्थक है क्योंकि इसका प्रयोग परिणाम अर्थात् सत्य के ग्रहण के लिए और समस्त प्रक्रिया के लिए भी होता है, जो सत्य को ग्रहण करती है। यद्यपि प्रत्यक्ष शब्द का व्यवहार प्रारम्भ में केवल इन्द्रियों द्वारा साक्षात्कार के लिए ही होता था, किन्तु शीघ्र ही इसके अन्तर्गत वह समस्त ज्ञान भी आ गया, जिसका ग्रहण तुरन्त हो जाता है। भले ही उसमें इन्द्रियों की आवश्यकता न भी हुई हो।"
__न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष को व्यापक अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। प्रत्यक्ष से 'प्रमा' और 'प्रमाण' दोनों का बोध होता है। वास्तविक ज्ञान को प्रमा और अवास्तविक ज्ञान को अप्रमा कहा जाता है। जहाँ तक प्रमाण का प्रश्न है जिस साधन से यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति हो, उसे प्रमाण कहते हैं।
के.पी. बहादुर के शब्दों में, "Perception is knowledge which arises bythe contact of a sense with the object. This knowledge is determinate, unconnected with name and non-erratic.
From the naya standpoint perception is an immediate valid cognition of reality, due to same kind of sense object contact..."."
वस्तुतः ज्ञान की विविध साधनों में प्रत्यक्ष या अन्तर्दृष्टि का महत्त्व सबसे अधिक है। वात्स्यायन ने तो यहाँ तक कहा है कि "जब मनुष्य किसी पदार्थ-विशेष का ज्ञान प्राप्त करने की अभिलाषा करता है और कोई विश्वसनीय पुरुष उसे उस पदार्थ के विषय में बतला भी देता है तो भी उसके अन्दर एक अभिलाषा उसकी यथार्थता को अनुमान द्वारा विशेषण-विशेष लक्षण जानकर परखने की होती है, किन्तु इतने पर भी उसकी जिज्ञासा शान्त नहीं होती जब तक कि वह स्वयं उसे अपनी आँखों से देख न ले। अपनी आंखों से देख लेने पर ही उसकी इच्छा पूर्ण होती है और तब वह फिर ज्ञान-प्राप्ति के लिए और किसी साधन की खोज नहीं करता।"19
Immediate Apprehension (pratakya) is the act of the mind by which we become directly aware of something."
प्रत्यक्ष शब्द का शाब्दिक अर्थ आँख के सम्मुख होना है (प्रति+अक्ष)। पहले आँख और वस्तु के सम्पर्क या सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान को ही प्रत्यक्ष ज्ञान माना जाता था लेकिन बाद में चलकर अन्य ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान को भी प्रत्यक्ष के अन्तर्गत लिया जाने लगा है। यानी यहाँ आँख से सभी ज्ञानेन्द्रियों का बोध होता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष उस असंदिग्ध बोध को कहते हैं जो इन्द्रिय संयोग से उत्पन्न होता है और यथार्थ भी होता है।
अन्नंभट्ट के शब्दों में "इन्द्रियार्थ सन्निकर्षजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षम"2 अर्थात् इन्द्रिय और वस्तु के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान ही प्रत्यक्ष है। गौतम ने इन्द्रियजन्य ज्ञान की परिभाषा देते हुए कहा है कि "वह ज्ञान जो किसी इन्द्रिय के साथ पदार्थ का संयोग होने से प्रादुर्भूत होता है, जिसे शब्दों द्वारा प्रकट न किया जा सके, जो भ्रमरहित हो और पूर्ण रूप से प्रकट हो रहा हो। 23
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