________________
37
अन्नभट्ट ने भी कहा है- पदानाम अविलम्बेन उच्चारणं सन्निधिः । " कोई वाक्य तभी अर्थसूचक हो सकता है, जब उसके पदों में समय एवं स्थान की दृष्टि से नैकट्य हो। यदि उनके समय का बहुत अन्तर रहे तो उनसे वाक्य नहीं बन सकते हैं। उसी प्रकार यदि उनके बीच स्थान का बहुत अन्तर रहने पर भी वाक्य नहीं बनता। एक-गाय - लाओ। इन पदों में आकांक्षा और योग्यता के रहने पर भी इनसे वाक्य नहीं बन सकता है। अगर ये एक-एक कर तीन दिनों में बोले जाएं या तीन पृष्ठों पर अलग-अलग लिखे जाएँ। अब जाहिर है कि यदि किसी वाक्य के शब्दों में योग्यता भी हो और आकांक्षा भी हो परन्तु सन्निधि न हो तो वाक्य सार्थक नहीं हो सकता है। वाक्य की सार्थकता के लिए आवश्यक है कि इसके शब्द परस्पर निकट हों। बिना व्यवधान के उच्चरित पद ही सार्थक वाक्य का निर्माण करते हैं पदों की समीपता देश और काल में होती है इसी समीपता या निकटता को आसक्ति या सन्निधि कहते हैं ।
(घ) तात्पर्य - वक्ता की इच्छा को ही दार्शनिकों ने तात्पर्य कहा है। वक्ता की इच्छा का ज्ञान भी शाब्द बोध के प्रति कारण होता है। वाक्य के अर्थ अनेक होने पर भी श्रोता वक्ता की जैसी इच्छा समझता है, अर्थात् "यह वक्ता इस अर्थ को समझाने के लिए इस वाक्य का प्रयोग कर रहा है ऐसा समझता है तदनुरूप ही वाक्य से अर्थबोध करता है। जैसे भोजन करते समय वक्ता ने कहा - "सैन्धव ले आओ" तो श्रोता यही समझता है कि सेंधा नमक लाने को कहा गया है। वह यह नहीं समझता कि सिन्ध देश का घोड़ा लाने के लिए कहा गया है । यद्यपि सैन्धव शब्द नमक और घोड़ा दोनों का समान रूप से वाचक है, फिर भी बोध दोनों का एक काल और स्थान में नहीं होता है। अब स्पष्ट है कि किसी वाक्य को सार्थक तभी कहा जा सकता है जब वक्ता के कथन का सही अभिप्राय समझ में आ जाय। जब तक अपराध के अपराध का पता नहीं चलता है तब तक न्याय देने में न्यायाधीश को बेहद कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अभिप्राय का पता चलने पर ही न्यायाधीश सजा देते हैं अथवा समा से मुक्त करने की घोषणा करते हैं। अतः अर्थपूर्ण वाक्य के लिए तात्पर्य का सबसे अधिक महत्त्व है। नीतिशास्त्र में भी इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। लोक कल्याण की भावना अथवा उत्तम तात्पर्य के कारण ही वैदिक वाक्य को अकाट्य एवं अपौसषेय बतलाया गया है। अर्थात् वैदिक वाक्य की सार्थकता एवं असंदिग्धता का कारण तात्पर्य (सर्वभूतहिते रता" की अवधारणा) ही है। तात्पर्य के कारण ही मनु ने ब्राह्मणों (ज्ञानियों) के चोरी करने पर अधिक दण्ड देने की बात की है और शूद्रों (अज्ञानियों) के चोरी करने पर बहुत कम दण्ड देने का विधान किया है। अतः अर्थपूर्ण वाक्य के लिए प्राच्य एवं पाश्चात्य दोनों दर्शनशास्त्र में तात्पर्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है भारत में मनु बृहस्पति, शुक्राचार्य, कौटिल्य से लेकर आज तक अधिकांश चिन्तकों ने तात्पर्य को ही अधिक महत्त्व प्रदान किया है और आगे भी इसी की संभावना है।
31