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सांस्कृति इत्यादि किसी भी साधन से नहीं कर पाता है विज्ञान एवं तकनीकी विकास से उपलब्ध साधनों से भी इस मामले में अधिक सहायता नहीं मिल पाती है वह विवश होकर एक ऐसी असीम, अभौतिक एवं आध्यात्मिक सत्ता में विश्वास करने लगता है, जिसके प्रसन्न होने से उसकी चाह की पूर्ति हो सकती है। वह उस सत्ता की आराधना प्रारम्भ कर देता है। फलस्वरूप धर्म का आविर्भाव होता है।
(ख) आध्यात्मिक मूल्य को चरम सत्य के रूप में लेना- सभी धर्म किसी-न-किसी आध्यात्मिक मूल्य को चरम सत्य मानते हैं। ईश्वर को मानना धर्म भावना के लिए आवश्यक नहीं माना जाता है। बौद्ध धर्म, जैन धर्म आदि ईश्वर को न मानने पर भी उच्च कोटि के धर्म समझे जाते हैं। सभी धर्म, चाहे वे ईश्वरवादी हों या अनीश्वरवादी हो, आध्यात्मिक मूल्य में विश्वास रखते हैं फिर भी इतना बतला देना उचित प्रतीत होता है कि अधिकांश धर्मों में ईश्वर को चरम सत्य माना गया है। श्रीमद्भगवद् गीता के तेरहवें अध्याय के ग्यारवें श्लोक में तो बतलाया गया है कि "अध्यात्म ज्ञान नित्यत्वं तत्त्व ज्ञानार्थदर्शनम् एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा । ।" अर्थात् Fixity in self-knowledge and seeing God as the object to true knowledge all this is declared as knowledge, and what is another than this is called ignorance. सुकरात एवं प्लेटो ने भी लगभग इन्हीं बातों को अपने ढंग से बतलाया है। इन्होंने भी वर्ल्ड ऑफ आइडियाज के ज्ञान को ही वास्तविक ज्ञान माना है।
(ग) धर्म का उद्देश्य व्यावहारिक है- भौतिक सुख तो नाशवान है पर आध्यात्मिक सुख का आनन्द शाश्वत है। धर्म का यह लक्ष्य या तो धर्माचरण करने से पूर्ण हो सकता है अथवा ईश्वर का साक्षात्कार करने से।
(घ) धार्मिक चेतना का विषय सम्पूर्ण विश्व है - दर्शन की भांति ही धर्म भी सम्पूर्ण विश्व की व्याख्या करना चाहता है। इसके लिए वह आध्यात्मिक मूल्यों की वास्तविक उपलब्धि का प्रयत्न करता है।
(ङ) आराधक और आराध्य के बीच अटूट सम्बन्ध का रहना - प्रत्येक धर्म में यह विश्वास पाया जाता है कि आराधक और आराध्य में घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। आराधक को पूर्ण विश्वास रहता है कि उसका आराध्य उसकी आवश्यकता पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करेगा और उसकी चाह की पूर्ति हो जायेगी। कभी आराध्य और आराधक की घनिष्टता इतनी बढ़ जाती है कि दोनों का द्वैत समाप्त हो जाता है और दोनों एक हो जाते हैं। इसका ज्वलन्त उदाहरण वेदान्त धर्म में मिलता है। कबीरदास एवं गोस्वामी तुलसीदास ने भी इस बात की सम्पुष्टि की है। कबीर की मैं भी हो गई लाल तुलसी की जानहिं तुमहि, तुमहि हो जाई, ब्रह्मसूत्र का 'ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति' की अवधारणा इसका ज्वलन्त उदाहरण है। रामानुज ने वही होना नहीं मानते बल्कि उनके सदृश्य होना मानते हैं। इस धर्म का स्वरूप देख लेने के बाद अब दर्शन के स्वरूप परविचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। उपर्युक्त विवेचनों में दर्शन शब्द का
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