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इनके मुताबिक मौलिक तत्त्व चिबिन्दु है, जो आध्यात्मिक एवं गवाक्षहीन हैं। चिदबिन्द को अंग्रेजी में मोनाइड कहा जाता है। यह चूंकि गवाक्षहीन है इसलिए यह बाहर से कोई भी ज्ञान ग्रहण नहीं कर सकता है। चिद् बिन्दुओं की संख्या अनन्त है। हरेक चिबिन्दु छोटे पैमाने पर विश्व का प्रतीक है। अब जो ज्ञान वह अपने अन्दर से उत्पन्न करता है, वह उसके विषय में सत्य होगा ही, इसलिए विश्व के विषय में भी सत्य होगा ही। चिबिन्दु चूंकि विश्व का प्रतीक है इसलिए अपने को जानने के संदर्भ में विश्व को भी जान लेता है। ऐसा इसलिए होता है कि ईश्वर जो विश्व का नियन्ता एवं विधाता है, उसने सृष्टि के प्रारंभ में ही ऐसी व्यवस्था स्थापित कर दी है। जहां देकार्त आदि बुद्धिवादियों ने मूल प्रत्ययों को जन्मजात माना है, वहां इन्होंने (लाइबनीज) सभी प्रत्ययों को जन्मजात ठहराया है।
वूल्फ और हीगेल ने भी बुद्धिवादी सिद्धान्त की सम्पुष्टि की है। हीगेल के मुताबिक मूल तत्त्व एक सर्वव्यापक बुद्धि है और उसी का प्रकाश हमारी बुद्धि है। बुद्धि वास्तविकता है और वास्तविकता ही बुद्धि है। अब स्पष्ट है कि चूंकि वास्तविकता ही बौद्धिक है, उसका ज्ञान बुद्धि से ही संभव हो सकता है। बौद्धिक ज्ञान की पद्धति द्वन्द्वात्मक है जो वाद, प्रतिवाद और संवाद की तीन अवस्थाओं से गुजरती है। इस ज्ञान की चरमावस्था या पराकाष्ठा दर्शनशास्त्र में होती है। वूल्फ ने भी अपने ढंग से बुद्धिवादी सिद्धान्त की सम्पुष्टि की है।
मूल्यांकन-बुद्धिवादियों ने बुद्धि को ज्ञान का एकमात्र साधन मानकर भूल की है। इसकी सबसे बड़ी भूल अनुभव का निषेध करना है। अनुभव को अस्वीकार करने के कारण यह एकांगी सिद्धान्त बनकर रह गया है। काण्ट ने स्वीकार किया है कि "बुद्धि के बिना अनुभव अंधा है और अनुभव के बिना बुद्धि रिक्त है।"
इन्होंने आगमनात्मक विधि को नकार कर भयंकर भूल की है। इनका आदर्श गणित है और गणित की पद्धति निगमनात्मक है, इसलिए इन्होंने निगमनात्मक विधि को ही मन की पद्धति स्वीकार किया है। ज्ञान के लिए जितना निगमन विधि का महत्त्व है, उतना ही आगमन विधि का। इनमें किसी की उपेक्षा करना अनुचित है।
बुद्धि के स्वरूप के सम्बन्ध में भी बुद्धिवादियों की धारणा उचित नहीं है। जैसे कि प्रत्यक्षीकरण, कल्पना, स्मृति चिंतन आदि सभी मानसिक क्रियाओं के मूल में संवेदन रहता है। इसलिए यह कहना कि बुद्धि बिल्कुल स्वतंत्र है, सत्य नहीं कहा जा सकता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने भी बतलाया है कि सभी प्रकार की मानसिक क्रियाओं, यथा-प्रत्यक्षीकरण, चिन्तन इत्यादि की जड़ में संवेदन विद्यमान रहते हैं। बुद्धिवादियों के तथाकथित बुद्धिजन्य ज्ञान भी अनुभव से पूर्ण स्वतंत्र नहीं होते हैं। अनुभव से ही हम 2+2=4 की सत्यता समझ पाते हैं। वस्तु के अस्तित्व का ज्ञान बुद्धि से नहीं, बल्कि अनुभव से होता है।
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