________________
से गणित की विधि अथवा निगमन विधि के द्वारा हमें सार्वभौम एवं अनिवार्य ज्ञानप्रदान करता है।
बेनेजिक्ट स्पिनोजा- इनके दर्शन में बुद्धि की शक्ति और महत्ता पर अटल विश्वास पाया जाता है। यह बुद्धि ही अपरोक्षानुभूति का माध्यम है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक एथिका के दूसरे भाग में बुद्धि की प्रकृति के विषय में स्पिनोजा ने लिखा है- बुद्धि का स्वभाव यह नहीं है कि पदार्थों को आकस्मिक समझो, अपितु यह है कि उसे अनिवार्य समझा जाए ।" अब स्पष्ट है कि बुद्धि स्वभाव से ही पदार्थों के यथार्थ रूप में अर्थात् जैसे कि वे वास्तव में हैं, वैसे अनिवार्य रूप से देखती है।
इन्होंने तीन प्रकार के ज्ञान को स्वीकार किया है- (क) काल्पनिक ज्ञान, (ख) अनुमान जन्य ज्ञान और (ग) प्रतिभ ज्ञान । काल्पनिक ज्ञान को इन्होंने वृहद् अर्थ में लिया है। इसके अन्तर्गत इन्द्रिय स्मृति इत्यादि द्वारा प्राप्त ज्ञान भी आ जाते हैं। यह स्पष्ट एवं अपूर्ण ज्ञान कहलाता है । यथार्थ ज्ञान बुद्धिजन्य होता है। अनुमानजन्य तथा प्रतिभ ज्ञान बौद्धिक ज्ञान के ही प्रकार हैं। इन दोनों यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति बुद्धि से होती है इसकी प्राप्ति के लिए निगमनात्मक विधि ही पर्याप्त है। बुद्धि और बाह्य जगत् में स्वाभाविक रूप से अनुकूलता पायी जाती है। इसीलिए बौद्धिक ज्ञान में यथार्थता रहती है।
बौद्धिक ज्ञान की प्राथमिकता के विषय में इनका (स्पिनोजा का कहना है कि विचार और विस्तार, चेतन और जड़ दोनों एक ही ईश्वर के दो धर्म हैं। दोनों में एक ही द्रव्य व्याप्त है। इस तरह हम देखते हैं कि जहाँ देकार्त द्वैतवादी सिद्ध होते हैं, वहीं स्पिनोजा एकवादी एवं सर्वेश्वरवादी दार्शनिक के रूप में दृष्टिगत होते हैं।
विल्हेल्म लाइबनीज- इन्हें प्रसिद्ध गणितज्ञ के रूप में स्वीकार किया गया है। इन्हें देकार्त की तरह गणितज्ञ माना जाता है। सी.ई.एम. जोज ने ठीक ही लिखा है - "Descartes and Leibnitz were both eminent mathematicians and their philosophies are accordingly marked mathematical in character. Affirming, that is to say, that we posses incontestable knowledge independently of sense experience, they proceeded to use their reasons to deduce what the universe must be like in order to account for our having such knowledge." इनके अनुसार जगत् में एक गणितीय एवं तर्कयुक्त व्यवस्था है। इस व्यवस्था के नियम बौद्धिक नियम है। अस्तु जगत् को केवल बुद्धि के द्वारा ही समझा जा सकता है । इन्होंने भी जन्मजात प्रत्यय को ही ज्ञान का आधार माना है। इनका कहना है कि मन न तो साफ कागज की तरह है, न किसी खजाने की तरह ही । मन एक पत्थर के टुकड़े की तरह है, जिसमें मूर्ति बनने की क्षमता पूर्व से ही विद्यमान रहती है।
91