Book Title: Gyan Mimansa Ki Samikshatma Vivechna
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 167
________________ - हिन्दी साहित्य कोश (नामावली शब्दावली), भाग-2, धीरेन्द्र वर्मा (प्रधान सम्पादक), वाराणसी ज्ञान मण्डल, 1986, पृ. 16. - ऋग्वेद, 6/33/13 3 श्रीमद्भगवद् गीता, अनुवादक-श्री हरिकृष्णदास गोयन्दका, शांकरभाष्य हिन्दी-अनुवाद सहित, गीता प्रेस, गोरखपुर सं. 2060, पृ. 137-38. 'द प्रिन्सपुल्स ऑफ फिलॉसफी, पृ. 3. वही, पृ. 8-9. 6 एच.एम. भट्टाचार्य, द प्रिन्सपुल्स ऑफ फिलॉसफी, कलकत्ता, 1959, पृ. 162. वही, पृ. 153 (ड्रडले, Essay on Truth and Reality नामक पुस्तक के 114 पृष्ठ में इसकी विस्तृत चर्चा है।) * B.N. Roy, Text book of Deductive Logic, 'Knowledge and Its Sources', p. 5. "C.D. Sharma, A critical survey of Indian philosophy, Motilal Banarasidass, Delhi, 1987, p. 42. 10 D.M. Dutta, The Six Way of Knowing, p. 19. P.D. Shashtri, The Essentials of Estern Philosophy, p. 55. बृहस्पति का मत-हम एक प्रत्यक्ष ही को मानते हैं क्योंकि प्रत्यक्ष के बिना अनुमानादि होते ही नहीं। इसलिए मुख्य प्रत्यक्ष के सामने अनुमानादि गौण होने से उनका ग्रहण नहीं करते। (दयानन्द सरस्वती-सत्यार्थ प्रकाश, पृ. 276) प्रत्यक्ष (स.वि.) इन्द्रिय ग्राह्य-जिसका ज्ञान इन्द्रियों द्वारा हो सके। इन्द्रियगोचर-जो आंखों के सामने हो, चार प्रकार के प्रमाणों में से एक जो सबसे श्रेष्ठ माना जाता है (हि.क्रि.वि.) आंखों के सामने। (भार्गव आदर्श हिन्दी शब्द कोश, द्वितीय खण्ड, पृष्ठ-630) "संकल्प-विकल्पात्मकं मनः" तिलक-गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र, पृ. 139 इन्द्रियार्थ सन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्चमव्यभिचारि व्यवसायात्मक प्रत्यक्षम्।। न्यायशास्त्र, अध्याय-1, सूत्र-4 उद्धृत. महर्षि दयानन्द सरस्वती, सत्यार्थ प्रकाश, आर्य साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली-1899, पृ. 37 जो श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा और घ्राण का शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध के साथ अव्यवहित अर्थात् आवरण रहित सम्बन्ध होता है। इन्द्रियों के साथ मन का और मन के साथ आत्मा के संयोग से ज्ञान उत्पन्न होता है। उसको प्रत्यक्ष कहते हैं। पृ. 37 अनुमान की प्रक्रिया में 'व्याप्ति' और 'पक्षधर्मिता' दो अंश मुख्य हैं। हेतु' और 'साध्य' के साहचर्य को 'व्याप्ति' कहते हैं। जैसे 'जहां-जहां धुआं होता है, वहां-वहां अग्नि होती है। यह धूम और अग्नि का साहचर्य नियम व्याप्ति कहलाता है। व्याप्ति का ग्रहण हुए बिना अनमान नहीं हो सकता है। इसलिए व्याप्ति 'अनुमान' का सबसे मुख्य भाग है। काव्य प्रकाशः (श्रीमम्मटाचार्य विरचित काव्य प्रकाश की हिन्दी व्याख्या), व्याख्याकार-स्व. आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्त शिरोमणि, सम्पादक-डॉ. नरेन्द्र, वाराणसी ज्ञानमण्डल लिमिटेड, सं. 2042, पृ. 258 12 अष्टावक्र, गीता, पृ. 270 13 भारतीय दर्शन, भाग-2, पृ. 69 14 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय-2, श्लोक 60वां, शांकर भाष्य, अनुवादक हरिकृष्णदासे गोयन्दका, पृ. 74. 167

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