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दर्शन शब्द का शाब्दिक अर्थ देखना होता है। दर्शनशास्त्र का मतलब जिसके द्वारा देखा जाए होता है। यानी सत्य का साक्षात अनुभव प्राप्त करना ही दर्शनशास्त्र का उद्देश्य है। इसे अंग्रेजी में फिलॉसफी कहा जाता है। यह दो शब्दों के योग से बना है-Philo + Logos. Philo का अर्थ प्रेम और Logos का अर्थ ज्ञान होता है। एच.एम. भट्टाचार्य के शब्दों में "The world philosophy comes from the Greek words philos, love and sophia, wisdom. Socrates liked to be a philosopher, a humble lover of wisdom unlike the sophists, the wisemen.......3
धर्म का अर्थ धारण करना होता है। जैसे आग का धर्म ताप है, मनुष्य का धर्म दया, करुणा और सहानुभूति है। अर्थात् मनुष्यत्व ही मनुष्य का धर्म है। धर्म को अंग्रेजी में Religion कहा जाता है। यह दो शब्दों के योग से बना हैRe+Legere. इसका अर्थ जोड़ना होता है। वाय मसीह के शब्दों में "The term 'religion' has been derived from the two words re and legere, which means 'to consider or to ponder'. Hence, it means that religion deals with an object on which an individual can ponder and meditate. But perhaps it is true to hold that it is derived from re and legre which mean "binding'. According to this derivation religion means that which binds men together, individually and socially.81
अतः यह व्यक्ति को व्यक्ति से और व्यक्ति को समाज से जोड़ने का काम करता है। जहां तक दर्शन और धर्म के बीच सम्बन्ध का प्रश्न है, दोनों के स्वरूप को जानने के पश्चात् ही स्पष्ट हो सकता है। धर्म के स्वरूप की जानकारी इसकी परिभाषा से मिल जाती है। गैलवे ने इसकी परिभाषा देते हुए कहा है कि "Religion is man's faith in power beyond himself whereby he seeks to satisfy emotional needs and gain stability of life, and which he expresses in acts of worship and service" यानी मनुष्य अपने को सीमित, असहाय एवं अपूर्ण पाता है, वह भौतिक साधनों द्वारा आध्यात्मिक लक्ष्य की पूर्ति नहीं कर पाता है। विज्ञान और वैज्ञानिक अनुसंधानों से भी उसकी चाह पूरी नहीं होती है।
अपने को असीम के प्रति पूर्ण निष्ठा एवं सर्वशक्तिमान बनाने की चाह हमेशा उसे सताती रहती है। इसी इच्छा अथवा चाह की पूर्ति के लिए वह धर्म का आश्रय लेता है। इसी प्रकार धर्म की उत्पत्ति होती है। इनके (धर्म के) कुछ सामान्य एवं विशिष्ट लक्षण होते हैं। इनके निम्नलिखित सामान्य लक्षण हैं
(क) मनुष्य के असहाय, अपूर्ण एवं सीमित होने की भावना-मनुष्य अपने को अपूर्ण एवं असहाय पाकर अपने को पूर्ण एवं असीम बनाने के लिए व्यग्र हो उठता है। वह अपनी इस चाह की पूर्ति सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक,
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