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न्यायशास्त्र में तीसरा प्रमाण उपमान ही है। गौतम के अनुसार ज्ञात वस्तु की समानता के आधार पर अज्ञात वस्तु की वस्तुवाचकता का ज्ञान जिस प्रमाण के द्वारा हो उसे उपमान कहा जाता है। उपमान दो शब्दों के मेल से बना है—उप+मान्। उप का अर्थ सादृश्य या समानता है और मान का अर्थ ज्ञान होता है। अतः उपमान से सादृश्य ज्ञान का बोध होता है। एस.सी. चटर्जी के शब्दों
"The word up imana is derivid from the words upa meaning idza ya or similarity and mina meaning cognition. Hence upam îna derivatively means the Knowledge of the similarity between two things. " यानी इसके द्वारा संज्ञा - संज्ञि - सम्बन्ध का ज्ञान होता है। दूसरे शब्दों में इसके द्वारा किसी नाम और उसके नामी के सम्बन्ध का ज्ञान होता है और उपमान के द्वारा प्राप्त ज्ञान उपमिति या उपमानजन्य ज्ञान कहलाता है। तर्कसंग्रह के अनुसार संज्ञा-संज्ञि सम्बन्ध का ज्ञान ही उपमिति है। अब स्पष्ट है कि उपमान ज्ञान प्राप्ति का वह साधन है, जिसके द्वारा किसी पद की वस्तुवाचकता का ज्ञान हो। उदाहरण के लिए मान लें कि किसी व्यक्ति ने भेड़िया नहीं देखा है परन्तु वह कुत्ते के बारे में पूर्ण परिचित है। कोई आप्त पुरुष उसे बतलाता है कि भेड़िया कुत्ते की भाँति एक जानवर है और दोनों में काफी समानता है। वह व्यक्ति एक दिन कहीं भेड़िया देखकर उसे बड़े कुत्ते के सदृश्य पाकर उसे भेड़िये के रूप में पहचान लेता है । भेड़िये का ज्ञान उपमिति है और जिस साधन से यह ज्ञान मिलता है, उसे उपमान कहते हैं। इसी तरह कोई विश्वसनीय व्यक्ति आपके सामने किसी ऐसी वस्तु का वर्णन करे जिसे आपने कभी न देखा हो और पीछे उस वस्तु को देखकर आप कहें कि यह वस्तु वही है, जिसका वर्णन आपके सामने किया गया था, तो यह ज्ञान उपमान के द्वारा प्राप्त होगा।
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राधाकृष्णन के अनुसार उपमान अथवा तुलना वह साधन है, जिससे हम किसी पूर्णतया ज्ञात पदार्थ के सादृश्य से किसी अन्य पदार्थ का ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह सुनकर कि जंगली बैल या नील गाय ( गवय) गाय के समान होता है, यह अनुमान करते हैं कि पशु जो गाय के सदृश दिखाई देता है, गवय है। उपमान के तर्क में दो अवयव रहते हैं - (1) ज्ञेय पदार्थ का ज्ञान, ( 2 ) सादृश्य का प्रत्यक्ष ज्ञान। जहां प्राचीन नैयायिक पहले को नय ज्ञान का मूल कारण मानते थे, वहीं अर्वाचीन नैय्यायिक सादृश्य ज्ञान को अधिक महत्त्व देते हैं।"
उपमान -प्रमाण के लिए यह आवश्यक है कि हमें किसी परिचित वस्तु के साथ ज्ञातव्य वस्तु के सादृश्यों का ज्ञान प्राप्त हो और आगे चलकर उन सादृश्यों का प्रत्यक्षीकरण हो। जब हम गवय में गौ के सादृश्य को देखते हैं और पहले सुनी हुई इस बात का स्मरण करते हैं कि गवय या नील गाय गाय के आकार-प्रकार की होती है और गाय से मिलती-जुलती होती है। यानी गवय गौ के सदृश्य ही है, तभी हम जानते हैं कि इसका नाम गवय है।
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