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किन्तु वास्तविकता कुछ और ही है। वस्तुतः भौतिकवादियों एवं क्षणिक प्रत्ययवादियों के विपरीत अपने मन्तव्य को सिद्ध करना था इसलिए उन्होंने उपर्युक्त तर्क की सहायता से अनुपलब्धि प्रयाण का अस्तित्व सिद्ध किया है। किन्तु न्याय और वैशेषिक मतावलंबियों की दृष्टि में उपर्युक्त मुक्ति उचित नहीं है। किन्तु वेदान्तियों ने मीमांसा दर्शन की तरह अनुपलब्धि प्रमाण को स्वतंत्र प्रमाण के रूप में स्वीकार किया है। न्याय और वैशेषिक मत का खण्डन भी किया है। समकालीन दार्शनिकों मे दयानन्द सरस्वती ने इसके अतिरिक्त चार
और स्वतंत्र प्रमाणों की सत्ता को स्वीकार किया है। करपात्रीजी महाराज ने भी वेदार्थपारिजात में षष्ठ प्रमाणों को स्वीकार किया है। करपात्रीजी यद्यपि दयानन्द से पूर्णतः सहमत नहीं हैं किन्तु छ: प्रमाणों की यथार्थता को कबूल किया है। मीमांसकों में प्रभाकर के अनुयायी अनुपलब्धि-प्रमाण को नहीं मानते हैं, क्योंकि वे इसके एकमात्र विषय अभाव को ही नहीं मानते हैं। हरिमोहन झा ने कुमारिल के मत को अधिक उपयुक्त ठहराया है। डॉ. राधाकृष्णन् ने भी कुमारिल के कथन को उपयुक्त ठहराया है।