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उदाहरण के लिए सफेद गाय को डंडे से हांक लाओ आदि। अब स्पष्ट है कि वेद, उपनिषद्, पुराण, धर्मशास्त्र इत्यादि में ऋषि-मुनियों के द्वारा दिये गये उपदेश शब्द प्रमाण कहलाते हैं।
अब प्रश्न है कि शब्द प्रमाण को उपमान के बाद क्यों रखा जाता है? या इसका निरूपण उपमान के निरूपण के अनन्तर क्यों किया जाता है? उपमान निरूपण के पश्चात् शब्द प्रमाण का निरूपण इसलिए प्रारम्भ किया जाता रहा है कि इन दोनों के बीच कार्यकारण भाव संगति है। यद्यपि यह बात सही है कि कार्य-कारण-भाव संगति उपमिति और शाब्दबोधात्मक फलों के बीच है अर्थात प्रमितियों के बीच है न कि उनके प्रतिप्रमाणभूत उपमान एवं शब्दों के बीच। तथापि फलगत कार्यकारण भाव का उपचार अर्थात् गौणरूप से स्वीकार प्रमाण-भूत उपमान तथा शब्दों के बीच भी माना जा सकता है और उसके आधार पर अनुमान और शब्द के बीच कार्यकारण भाव संगति कही जा सकती है। जो नव्य नैयायिकों ने शाब्द बोध के प्रति शब्द को प्रमाण न मानकर शब्द-ज्ञान को प्रमाण माना है। उनके मत में तो प्रमाणगत भी कार्यकारण भाव स्वतः सम्पन्न हो जाता है। उक्त प्रकार उपचार की आवश्यता नहीं रह जाती है क्योंकि गवयोगवयपदवाच्यः अर्थात एतज्जातीय पशु गवय कहलाते हैं। इस प्रकार होने वाला उपमिति ज्ञान भी पद विषयक होने के कारण पद-ज्ञान कहलाने का अधिकारी होता है, जिसके प्रति सादृश्य ज्ञानात्मक उपमान कारण होता ही है। पद-ज्ञान में अनायास उपमान् जन्यत्व प्राप्त होने के कारण उपमान् और पदज्ञान इन दोनों के बीच अनायास कार्यकारण-भाव संगति उपस्थिति हो जाती है। यथार्थ वक्ता तो कोई अज्ञ या रटू प्राणी भी हो सकता है परन्तु उसे आप्त नहीं कहा जा सकता है। अतः आप्तत्व' की व्याख्या 'स्व-प्रयुक्त-वाक्यार्थ-यथार्थज्ञानवव्व' ज्ञातव्य है। यानी वस्तुस्थिति के अनुरूप ज्ञानयुक्त होते हुए तदनुरूप वाक्य प्रयोक्ता व्यक्ति यथार्थ वक्ता होता है और वही आप्त कहलाने का अधिकारी होता है। फलतः उक्त प्रकार आप्त का वाक्य शब्द प्रमाण कहलाता है।
जहाँ तक शाब्दिक ज्ञान की उत्पत्ति का प्रश्न है। उस ज्ञान की उत्पत्ति विश्वसनीय व्यक्ति के वाक्य के वास्तविक अर्थ जानने व समझने पर निर्भर करता है एवं इसकी प्रमाणिकता वक्ता के विश्वसनीय होने पर आधारित है। अतः आप्त पुरूषों के कथन का सही अर्थ समझना भी आवश्यक है। इनके कथन का वास्तविक अर्थ नहीं समझने पर शाब्दिक ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती है।
यथार्थ शाब्दिक ज्ञान की उत्पत्ति निम्नांकित बातों पर आधारित है
(1) शाब्दिक कथन आप्तवचन होता है अर्थात् इसे किसी विश्वसनीय व्यक्ति का कथन होना चाहिए।
(2) ये शाब्दिक कथन यथार्थ रूप में लोगों के सामने आप्त पुरूष के द्वारा रखे जाते हैं।
(3) शाब्दिक कथन आप्तपुरूष के निजी अनुभव के आधार पर किसी विषय के साक्षात्कार पर अवलम्बित होते हैं।
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