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चाहिए। जब तक यह अपेक्षा (शब्दों के एक साथ रहने की आकांक्षा) पूरी नहीं होती तब तक वाक्य सार्थक नहीं कहा जा सकता है। अन्नंभट्ट ने लिखा है-“पदस्य पदान्तरव्यतिरेक प्रयुक्तान्वयाननुभावकव्वमाकांक्षा |
अर्थात् जिस दूसरे शब्द के उच्चारण हुए बिना जब किसी अन्य शब्द का अभिप्राय समझ में न आवे तो इस प्रकार के उन दोनों पदों के सम्बन्ध को आकांक्षा कहा जाता है। उदाहरण के लिए यदि वक्ता एक साँस से बोल जाए कि “गैया बैल आदमी हाथी' तो इस वाक्य से श्रोता को कोई अर्थ बोध नहीं होता है। क्योंकि "गैया' इस पद से “बैल" इस पद की कोई अपेक्षा नहीं मालूम होती है। इसी तरह अगर कोई कहे कि “लाओ' तो इससे सार्थक वाक्य नहीं बन जाता क्योंकि इस शब्द को अन्य शब्दों की अपेक्षा है। अब यदि कहा जाय कि पुस्तक लाओ तो यह सार्थक बन जाता है क्योंकि यहाँ आकांक्षा परी हो जाती है। इसी तरह यदि यह बोला जाय कि "गैया आती है", "बैल जाता है" तो इस वाक्य से अर्थबोध होता है, क्योंकि क्रिया पद से कारक पद को और कारक पद से क्रिया पद की अपेक्षा होती है। "गैया" यह कारक पद है, "आती है" यह क्रिया पद है। इसी प्रकार अन्य उदाहरणों में भी समझना चाहिए। इस प्रकार जिन शब्दों में पारस्परिक आकांक्षा न हो उनसे सार्थक वाक्य नहीं बन सकता है।
(ख) योग्यता-वाक्य की दूसरी आवश्यकता उसके पदों की योग्यता है। वाक्य के पदों के द्वारा जिन वस्तुओं का बोध होता है, उनमें यदि कोई विरोध न हो तो इस विरोध के अभाव को योग्यता कहते हैं। इसीलिए अन्नभट्ट ने लिखा है-"अर्थाबाधो योग्यता'। यानी सार्थक वाक्य के लिए यह आवश्यक है कि इसके शब्दों में साथ रहने की आकांक्षा हो और इनमें परस्पर सामन्जस्य पाया जाय। इसे यों कहा जाय कि किसी वाक्य के शब्दों में पारस्परिक विरोध या असंगति नहीं होनी चाहिए, अर्थात् उद्देश्य और विधेय को परस्पर विरोधी नहीं होना चाहिए तभी ये किसी वाक्य में एक साथ रह सकते हैं। जिन शब्दों के मिलने से सही अर्थ निकले, उनमें साथ रहने की योग्यता समझनी चाहिए। इसके विपरीत यदि उद्देश्य और विधेय में परस्पर आकांक्षा रहने पर भी साथ रहने की योग्यता न हो तो सार्थक वाक्य नहीं बन सकता है। जैसे कोई कहे कि “अग्नि से सींच रहा है तो इस वाक्य से अर्थ बोध नहीं होता है, क्योंकि सिंचन जल से ही हो सकता है, अग्नि से नहीं। इस प्रकार के वाक्य-प्रयोगस्थल में श्रोता को अर्थोपस्थिति अर्थात् पदार्थों का विश्रृंखलभाव से समरणमात्र होकर रह जाता है-इसी अर्थगत आबाधित्व यानी अर्थबोध को दार्शनिक लोग “योग्यता" कहते हैं। योग्यता का ज्ञान यदि अभ्रान्त अर्थात् यथार्थ है, तो शब्द बोध यथार्थ होता है। कुछ लोग अयोग्यता ज्ञान को शाब्दबोध के प्रति प्रतिबन्धक मानते हैं, इसी से उक्त अयोग्यता वाक्य से वाक्यार्थबोध नहीं होता है।
(ग) आसक्ति या सन्निधि-वाक्य की तीसरी आवश्यकता सन्निधि या आसक्ति है। वाक्य के पदों का एक-दूसरे से सामीप्य होना ही सन्निधि है।
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