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होता है। इसीलिए गंगेश उपाध्याय ने प्रत्यक्ष की परिभाषा देते हुए कहा है कि “प्रत्यक्षस्य सांक्षात्कारित्वं लक्षणम्" अर्थात् बिना किसी माध्यम के प्राप्त ज्ञान को ही प्रत्यक्ष कहते हैं। यहाँ साक्षात् प्रतीति को ही प्रत्यक्ष की मुख्य पहचान बतलाया गया है। प्रत्यक्ष का यह सामान्य लक्षण इसे अन्य प्रमाणों से सर्वथा पृथक् कर देता है। अनुमान, उपमान, शब्द आदि किसी भी प्रमाण से साक्षात् ज्ञान नहीं होता है ।
प्रत्यक्ष के प्रकार - इसके भेदों का निरूपण कई प्रकार से किया जा सकता है। एक प्रकार से प्रत्यक्ष लौकिक और अलौकिक हो सकता है। साधारण ढंग से जब इन्द्रिय का संयोग वस्तु के साथ होता है तब लौकिक प्रत्यक्ष कहलाता है। लौकिक प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है-बाह्य एवं मनस ।
This direct knowledge may arise from external or internal perception. In external perception, we directly know by the exercise of our sense organs (the eye, the ear etc.) that external objects exist outside of us and possess it exists and possesses the quality, brightness. In internal perception (also called introspection) we directly know the states of our own mind, e.g., our joys and sorrows.24
बाह्य प्रत्यक्ष आंख, नाक, कान, त्वचा तथा जिहवा के द्वारा होता है। मनस प्रत्यक्ष मानसिक अनुभूतियों के साथ मन के संयोग से होता है। इस तरह लौकिक प्रत्यक्ष छः प्रकार के होते हैं। दूसरे शब्दों में प्रत्यक्ष ज्ञान को छः भेदों में विभक्त समझना चाहिए, जैसे- घ्राणज, रासन, चाक्षुष, त्वाच, श्रावण और मानस । क्योंकि घ्राण, रसन, चक्षु, त्वक, क्षोत्र और मन ये छः इन्द्रियाँ है । यह सुगन्ध है । यह दुर्गन्ध है । यह ज्ञान घ्राणज प्रत्यक्ष है। क्योंकि घ्राण के पास गन्धवाली वस्तु के जुटने पर घ्राण से उस गन्ध का प्रत्यक्ष होता है। 25
प्रत्यक्ष जन्य इन्द्रियार्थ संबंध ही सन्निकर्ष कहलाता है। कहीं भी जब इन्द्रिय के साथ द्रष्टव्य पदार्थ का संबंध होता है, तभी उस पदार्थ का प्रत्यक्ष होता है । घट के साथ जब आँख जुटती है तब यह घड़ा है, ऐसा ज्ञान होता है। यद्यपि सन्निकर्ष लौकिक और अलौकिक ज्ञान रूप में दो प्रकार का हैं किन्तु अन्नंभटट ने जिन सन्निकर्षो का उल्लेख किया है, वे सभी लौकिक ही हैं, अलौकिक नहीं ।
जहाँ तक लौकिक प्रत्यक्ष के अन्तर्गत अन्तरिन्द्रिय का प्रश्न है, वह मन ही है। इसके द्वारा आत्मा की इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख तथा दुख का प्रत्यक्ष होता है। इसीलिए विश्वनाथ पंचानन ने लिखा है- "साक्षात्कारं सुखदुखादीनां कारणं मन उच्चयते । मन शब्द का अर्थ ही होता है-"मन्यते अनेन इति मन” अर्थात जो मनन का साधन यानी सोचने समझने का द्वार है, वही मन है। गौतम ने स्वयं भी बतलाया है कि "ज्ञानायौगपद्यात एक मनः" । S.C. Chatterji के शब्दों में “There is only one internal sense called manas or mind". यह
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