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प्रत्यक्ष की उपर्युक्त परिभाषा का विश्लेषण करने पर इसमें तीन तत्त्व पाये जाते हैं-(क) वस्तु और इन्द्रिय में सन्निकर्ष-प्रत्यक्ष के लिए 'इन्द्रिय-वस्तुसन्निकर्ष' आवश्यक है। उदाहरणार्थ-आँख से गुलाब का सन्निकर्ष होने पर ही गुलाब की लालिमा का प्रत्यक्ष होता है।
(ख) प्रत्यक्ष भ्रम नहीं है-कभी-कभी इन्द्रिय और वस्तु के सम्पर्क से भ्रम अथवा मिथ्याज्ञान भी मिलता है। इसे प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता है। प्रत्यक्ष के लिए इन्द्रिय-वस्तु-सन्निकर्ष के साथ-साथ ज्ञान में भ्रम का पूर्णतया निराकरण भी आवश्यक है। अगर सांप को रस्सी समझ लिया जाए या रस्सी को सांप समझ लिया जाय तो इसे प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता है।
(ग) प्रत्यक्ष अनिश्चित नहीं होता है-प्रत्यक्ष हमेशा निश्चित होता है। किसी वस्तु के प्रत्यक्ष में अनिश्चित ज्ञान नहीं होना चाहिए। अगर किसी व्यक्ति का प्रत्यक्ष करने पर यह कहें कि वह या तो मोहन है या राम है तो इसे प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता है। अतः प्रत्यक्ष के लिए सदैव निश्चित होना जरूरी है। गौतम ने तो अपनी परिभाषा में सभी प्रकार के प्रत्यक्ष ज्ञान को निश्चयात्मक माना है। इनका कहना है कि यदि हमें इस विषय में सन्देह है कि दूर स्थित पदार्थ मनुष्य है अथवा एक खम्भा है, धूल है या धुआं है, तो यह प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है।
(घ) प्रत्यक्ष भाषा पर आधारित नहीं है। किसी विषय का प्रत्यक्ष होने पर उसे भाषा के माध्यम के अभिव्यक्त करना जरूरी नहीं है। इसे भाषा में व्यक्त कर भी सकते हैं और नहीं भी कर सकते हैं। यह प्रत्यक्ष करने वालों की इच्छा पर निर्भर है। अर्थात् यह वचनीय और अनिर्वचनीय दोनों के लिये सार्थक सिद्ध होता है।
प्रत्यक्ष की उपर्युक्त परिभाषा अत्यन्त प्राचीन है। अधिकांश भारतीय दार्शनिकों ने इसे सन्तोषप्रद बतलाया है। लगभग सभी पाश्चात्य विद्वानों ने भी इसे सन्तोषप्रद परिभाषा के रूप में मान लिया है। किन्तु नव्य-नैयायिक, वेदान्ती एवं कई अन्य विद्वानों ने इसे दोषपूर्ण बतलाया है। नव्य नैयायिक गंगेश उपाध्याय ने इसमें तीन प्रकार के दोषों की चर्चा की है-(क) अतिव्याप्त परिभाषा का दोष, (ख) अव्याप्ति दोष, (ग) चक्रक दोष। इनका कहना है कि इन्द्रिय-संयोग के बिना भी प्रत्यक्ष ज्ञान संभव हो सकता है।
ईश्वर को सभी विषयों का प्रत्यक्ष ज्ञान है, किन्तु ईश्वर को इन्द्रिय नहीं है। जब रस्सी को भ्रमवश साँप समझ लेता है तो इन्द्रिय संयोग का अभाव रहता है, क्योंकि वहां कोई वास्तविक सांप नहीं है, जिसके साथ आँखों का सम्पर्क हो। सुख-दुःख आदि जितने मनोभाव हैं, सभी का प्रत्यक्ष इन्द्रिय संयोग के बिना ही होता है। इससे स्पष्ट है कि इन्द्रिय संयोग प्रत्यक्ष ज्ञान के सभी भेदों का सामान्य लक्षण नहीं है। अतः इन्द्रिय संयोग प्रत्यक्ष के लिए नितान्त आवश्यक नहीं है। प्रत्यक्षों का सामान्य लक्षण इन्द्रिय संयोग नहीं वरन् साक्षात्-प्रतीति है। किसी वस्तु का प्रत्यक्षज्ञान तब होता है, जब उसका साक्षात्कार होता है। अर्थात जब उस वस्तु का ज्ञान बिना किसी पुराने अनुभव या बिना किसी अनुमान के
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