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सफल क्रियाशीलता की अनुभूति ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि एक सामान्य स्वस्थ मस्तिष्क की अनभूति चाहिए, जो सफल क्रियाशीलता के पिछले अनुभवों का समर्थन करें। केवल मानसिक अवस्था की विशदता या सन्तोष की अनुभूति नहीं, बल्कि सम्पूर्ण अनुभव के साथ अनुकूलता अभीष्ट है। स्वप्नगत पदार्थ अनुभव के देश-काल रूपी सांचे में ठीक नहीं बैठ सकते और इसलिए वे काल्पनिक हैं।
जब तक फल की प्राप्ति नहीं होती तब तक हम अपने ज्ञान को निश्चित रूप से यथार्थ नहीं कह सकते। इस प्रकार हमें वह आत्मविश्वास नहीं मिल सकता, जिसके बिना कोई प्रयत्न संभव नहीं है। पदार्थों का यथार्थ ज्ञान सफल क्रियाशीलता की पूर्व शर्त है और सफल क्रियाशीलता से पूर्व हमें पदार्थों का यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता। उद्योतकर बलपूर्वक कहते हैं कि क्रियाशीलता और ज्ञान की सापेक्षिक पूर्ववर्तिता के प्रश्न में कोई सार नहीं है, क्योंकि सृष्टि अनादि है। इसके अतिरिक्त कर्म के लिए ज्ञान की यथार्थता नहीं, बल्कि पदार्थ का ज्ञान ही आवश्यक है। जहां तक परिचित पदार्थों का सम्बन्ध है, कोई कठिनाई उत्पन्न नहीं होती। ऐसी स्थितियों में जहां हमारे समक्ष अद्भुत रूपरेखा उपस्थित होती है और केवल पूर्ववर्ती घटनाओं को लागू करना अपर्याप्त है, वहां भी पर्याप्त ज्ञान के आधार पर हम परीक्षण करते हैं। कभी-कभी हम प्रसिद्ध प्राक्कल्पनाओं का यथार्थ रूप जांचने के लिए कर्म में प्रवृत्त होते हैं। जीवन सामान्यतः धारणाओं के आधार पर चलता है और प्रत्येक प्रस्तुत क्रिया प्रणाली को उसके आधार पर कर्म करने से पूर्व तर्क की सूक्ष्मतुला पर तोलना सर्वदा संभव नहीं हो सकता। व्यावहारिक आवश्यकताओं का दबाव हमें विचारों के अनुसार कार्य करने को बाध्य कर देता है, भले ही उनका साक्ष्य अपूर्ण हो। धार्मिक विश्वास के विषय हमारे कर्म का निर्णय करते हैं, चाहे वे तर्क के क्षेत्र से परे ही क्यों न हों। नैय्यायिक स्वीकार करता है कि ऐसी अवस्थाएँ हैं, जहां पूर्ण जांच संभव नहीं है। अग्निहोत्र के अनुष्ठान से हमें स्वर्ग प्राप्ति होती है या नहीं, इसका निश्चित हमारी मुत्य से पूर्व नहीं हो सकता। ऐसा व्यक्ति जो पूर्ण ज्ञान प्राप्त किये बिना कर्म ही नहीं करेगा, या तो अति वृहद् मस्तिष्क वाला होगा या अत्यन्त अल्पायु होगा। वाचस्पति और उदयनाचार्य जैसे परवर्ती नैय्यायिक प्रामाणिक ज्ञान के कुछ रूपों का स्वतः प्रमाण होना स्वीकार करते हैं। सब प्रकार की भ्रांति तथा उन संगति में रहित अनुमान और तात्त्विक समानता पर आश्रित उपमान वाचस्पति के अनुसार स्वतः प्रमाण्य रखते हैं, क्योंकि बुद्धि संगत आवश्यकता बोध तथा पदार्थों को परस्पर बांधने वाली है। इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान और शाब्दिक प्रमाण के विषय में हम समस्त रूप से निश्चित नहीं हो सकते। उदयनाचार्य ने वाचस्पति के मत को स्वीकार किया है और युक्ति दिया है कि अनुमान और उपमान के अतिरिक्त आत्मचेतना (धर्मीज्ञान) स्वतः प्रमाण्यरूप प्रमाणिकता रखते हैं।