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अध्याय-2
गणस्थान का स्वरूप
जैन दर्शन में गुणस्थान के 14 स्वरूपों या अवस्थाओं को स्वीकार किया गया है जो जीव की आत्मिक उन्नति या आध्यात्मिक प्रगति की विकास यात्रा का द्योतक है। इसमें प्रथम से
गस्थान तक की विकास यात्रा में सिद्धान्त बोध का प्रकटीकरण होता है जो दर्शन की अवस्थाओं का प्रतीक है। 5वें से 12वें गुणस्थान का सम्बन्ध सम्यक् चारित्र से है जो आध्यात्मिक उत्कृष्टता की अवस्थाएं हैं। दूसरे व तीसरे गुणस्थान वस्तुतः पतन की अवस्थाएं हैं किन्तु इनमें एक बार सम्यक्त्व को प्राप्त किया हआ जीव ही पहँचता है। पतन के दौरान ये विश्राम स्थल की तरह है जहाँ से जीव प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होता है। ऐसी ही स्थिति 11वें व 12वें गुणस्थान के संदर्भ में है क्योंकि 10वें गुणस्थान में यदि जीव कषायादि भाव या कर्मों का क्षय कर लेता है तो वह सीधा 12वें गुणस्थान में पहुँचता है जबकि उपशांत या क्षयोपशम की स्थिति में वह पहले 11वें गुणस्थान में जाता है और वहाँ से पतित होकर पहले गुणस्थान तक जा सकता है। 12वें गुणस्थान के बाद पतन नहीं होता है इसलिए इसके पश्चात के 13वें व 14वें गुणस्थान आध्यात्मिकता के श्रेष्ठतम या उत्कृष्ट शिखर कहे जाते हैं क्योंकि यहाँ केवलज्ञान का साम्राज्य रहता है। बस सर्वार्थसिद्धि या मोक्ष के लिए आयु कर्म के क्षीण होने की ही प्रतीक्षा रहती है। गणस्थान का अर्थगुण + स्थान = गुणस्थान गुण = आत्मा की चेतना, सम्यक्त्व समकित, संयम चारित्र तथा आत्मा वीर्य इत्यादि की शक्तियाँ गुण हैं। स्थान = आत्मा की शुद्ध विशुद्धताओं की भिन्न-भिन्न अवस्थाएं. आचरण या पर्याय को स्थान कहा जाता है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि आत्मिक शक्तियों की साधना हेतु आत्मा के अपकर्ष और उत्कर्ष श्रेणीक्रम की जो स्थितियां या कसौटी परक आधार हैं उन्हें गुणस्थान कहा जा सकता है। कहा भी है- गुणस्य स्थानं गुणस्थानम्- अर्थात् जो गुण का स्थान है वही गुणस्थान है। गुणस्थानों का सम्बन्ध जीव या आत्मा के गुणों एवं लोकाकाश में उसकी स्थिति के साथ होता है। जीव व कर्मों के आवरण के कारण स्थितिबन्ध होता है। यही कर्मों का प्रमाण एवं तीव्रता स्थान निर्धारण में अहम् भूमिका निभाती है। जीव के भावों में होने वाले उतार-चढाव का बोध जिससे होता है जैन सिद्धान्त में उसे गुणस्थान कहा जाता हैं। ये गुणस्थान चौदह होते हैं। जीव के अंतरंग में उठने वाले भाव पाँच प्रकार के होते हैंऔपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदायिक और पारिणामिक।
औपशमिकक्षायिकौभावौमिश्रश्चजीवस्य।।1।।
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