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है- प्रत्यक्ष और अनुमान। ईश्रर के सम्बन्ध में जीव ही अर्हत् पद को प्राप्त करने पर ईश्वर पद को ग्रहण कर लेता है। वे अलग ईश्वर का अस्तित्व नहीं मानते। गुणस्थान जीव की आध्यात्मिक विकास यात्रा के सोपानों की स्थिति का एक विश्लेषण है जिसकी मान्यता है कि जैसे-जैसे जीव ऊपर के सोपानों में आरोहण हेतु विशुद्धतर या विशुद्धतम नैतिक-चारित्रिक विशुद्धतायुक्त पुरुषार्थ करता है वैसे-वैसे वह अंतिम ध्येय निर्वाण या मोक्ष के निकट पहुँचता है और इस यात्रा के उच्चतर मुकामों पर उसे अलौकिक आध्यात्मिकता की सुखद अनुभूति होती है। यहाँ निर्वाण या मुक्ति की कल्पना जीव की समस्त कर्मों से मुक्ति, संकल्प-विकल्प रहित उसके निज स्वरूप में लौट आने से की गई है। जैन दर्शन में इस विकास यात्रा के चौदह चरण हैं जिसमें आरोहण, पतन, विकास एंव कर्म रहित होने की विभिन्न पद्धतियों को लेकर नियत व्यवस्थाओं का निर्देश है।
अब प्रश्न यह उठता है कि इस सिद्धान्त की तुलना किसके साथ की जा सकती है तो संभावित उत्तर प्राप्त होता है कि जिन दर्शनों में आत्मा के आध्यात्मिक विकास, नैतिकता, आचरण की शुद्धता, आत्मा एंव कार्य, निर्वाण- मुक्ति या शिवपद की धारणाओं का समावेश है उसके सोपानों, अंतिम मुकाम तक पहुँचने के मार्गों और कर्म पद्धति में किस हद तक समानता है और कहाँ असमानता दृष्टिगोचर होती है इन तार्किक आधार पर विश्लेषण करना ही तुलनात्मक विवेचन कहा जा सकता है।
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