Book Title: Gunasthan ka Adhyayan
Author(s): Deepa Jain
Publisher: Deepa Jain

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Page 168
________________ जैसे-जैसे वह आगे की ओर बढ़ता जाता है वैसे-वैसे यथाप्रवृत्तिकरण की शक्ति के द्वारा उसे क्षयोपशम (जिससे विपाकशक्ति के द्वारा कर्म फल क्षीण होते हैं), विशुद्धि, देशना (ज्ञानीजनों से मार्गदर्शन प्राप्त होना) तथा प्रयोग (आयुष्य को छोड़कर अन्य कर्मों के प्रमाण का क्षय हो जाना) प्राप्त होता है। 2. अपूर्वकरण- इस अवस्था में सम्यक्त्व के बोध के चलते पूर्व में जो संयम या नैतिक आचरण की भूमिका तैयार की गई है उसे साहस के साथ अमल में लाकर भाव विशुद्धि की ओर बढ़ता है और आत्मा में निजस्वरूप या हल्केपन का अनुभव करता है जो इससे पूर्व उसे हुआ ही न हो इसीलिए यह अवस्था अपूर्वकरण कही जाती है। इस अवस्था में निम्नलिखित 5 क्रियाएं होती हैं(अ) स्थितिघात- कर्मविपाक की अवधि में परिवर्तन करना। (आ) रसघात- कर्मविपाक व बन्धन की प्रगाढ़ता में कमी लाना। (इ) गुणश्रेणी- कर्मों को ऐसे क्रम में रख देना जिससे काल से पूर्व इनका फल भोगा जा सके। गुणसंक्रमण- कर्मों की अवान्तर प्रकृतियों का रूपान्तर जैसे दुःखद वेदना को सुखद वेदना में परिवर्तित कर देना। अपर्वबन्ध- क्रियामाण क्रियाओं के फलस्वरूप होने वाले बन्ध का अत्यन्त अल्पकालिक व अल्पतर मात्रा में होना। 3. अनिवत्तिकरण- इस स्थिति में राग-दवेषादि कर्म प्रकतियों का भेदन किया जाता है तथा पूर्व में वर्णित स्थितिघात आदि चरणों का दोहरावीकरण किया जाता है ताकि मिश्रमोह और मिथ्यात्व मोह को नेस्तनाबूत किया जा सके। ग्रंथिभेद की यह द्विविधि प्रकिया जीव के उत्थान काल में गुणस्थानक दृष्टि से दो बार होती है। प्रथम- गुणस्थान के अंतिम चरण में तथा पुनः 7वें-8वें और 9वें गणस्थान में। एक (पहली में) में वासनात्मक प्रवत्तियों का निरोध होता है तथा दूसरी में दुराचरण की प्रवृत्तियों का निरोध होता है। सप्त नय- नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजसत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये सात नय है। गमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूदैवंभूतानयाः ।।33।। त. सू. अ-1 नैगम नय- जो नय अनिव्यक्त मात्रा के संकल्प को ग्रहण करता है वह नैगम नय है। जैसेलकड़ी पानी आदि सामग्री इकठ्ठी करने वाले पुरुष से कोई पूँछता है कि आप क्या कर रहे हैं, तब वह उत्तर देता है कि रोटी बना रहा हूँ। यद्यपि उस समय वह रोटी नहीं बना रहा है तथापि नैगम नय उसके इस उत्तर को यथार्थ मानता है। संग्रह नय- जो नय अपनी जाति का विरोध न करता हुआ एकपने से समस्त पदार्थों को ग्रहण करता है उसे संग्रह नय कहते है। जैसे- सत, द्रव्य, घट आदि। व्यवहार नय- जो नय संग्रह नय के द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थों में विधि पूर्वक भेद करता है वह व्यवहार नय है। जैसे सत के दो प्रकार है- द्रव्य और गुण। द्रव्य के छः भेद है- जीव, 168

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