Book Title: Gunasthan ka Adhyayan
Author(s): Deepa Jain
Publisher: Deepa Jain

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Page 167
________________ गणस्थान सम्बन्धी शब्दावली उत्कर्षण- स्थित्यनुभागार्थो बुद्धिः उत्कर्षण- गो.क.जी. प्र. 4381591। 141 कर्म प्रदेशों की स्थिति को बढ़ाना अर्थात् स्थिति व अनुभाग की वृद्धि उत्कर्षण कहलाती है। अपकर्षण- पदेसायां ठिदीणमावट्ठाणा ओक्कडढणा णाम- धवला 1014121412115312। कर्म प्रदेशों की स्थितिओं का अपवर्तन (घटना) अपकर्षण कहलाती है। संक्रमण- पर प्रकृतिरूप परिणमन संक्रमणम्- गो.क.जी. प्र. 4381591। 14। जो प्रकृति पूर्व में बँधी हुई थी इसका अन्य प्रकृति रूप में परिणमन हो जाना संक्रमण है। उदय- ते च वेय फलदाणसमए उदय ववएसं पडिवज्जति - (जय धवला पु.1 , पृ. 293)जीव से सम्बद्ध हए वे ही कर्म स्कन्ध फल देने के समय में उदय की सज्ञा को प्राप्त होते हैं। उदीरणा- का उदीरणाणाम। अपक्वा चरण मुदीरणा- (धवला 15143|61) उदय के लिए अपक्व कर्मों का पाचन करना उदीरणा है। उपशम- कर्मों के उदय को कुछ संय के लिए रोक देना उपशम कहलाता है। निर्घन्ति- जो कर्म प्रदेश न तो उदय में लाए जा सकें और न ही अन्य प्रकृति रूप परिणमित किए जा सकें, कर्मों की इस दशा को निर्घन्ति कहते हैं। एक समय में जितने परमाणु उदय में आते हैं उनके समूह को निषेक कहा जाता है। निकाचित- जिस कर्म प्रदेशाग्र का न तो अपकर्षण किया जा सके और न ही उत्कर्षण तथा न ही अन्य उप प्रकृति में संक्रमण। जिसे न उदय में लाया जा सके और न ही जिसकी उदीरणा संभव हो उस प्रवेशाग्र को निकाचित कहते हैं। अप्रमत्त- अप्रमत्त संयत नामक सातवें गुणस्थान के अंतिम समय में देवायु बन्ध की व्युच्छिन्ति होती है। उदय व्युच्छिन्ति- कर्मों की पलदान शक्ति का नष्ट होना उदय व्युच्छिन्ति है। सत्व व्युच्छिन्ति- जब कर्मों का संवर होता है तब उनकी निर्जरा व क्षय भी होता है। इसी को सत्व व्युच्छिन्ति (कर्मों का सत्ता में न रहना व आत्म प्रदेशों का अस्तित्व समाप्त हो जाना) कहा जाता है। सात कर्म प्रकृतियों की सत्ता का क्षय करके वह सम्यग्दृष्टि बन जाता है। वह अधिकतम चार भव तक संसार में रहकर नियम से मोक्ष होता है। द्रव्यमीमांसा- द्रव्य अथवा त्तव बोध की जिज्ञासा जीवन की प्रक्रिया का मूलभूत अंश है। द्रव्य शब्द द्र धातु से निष्पन्न है जिसका अर्थ है द्रवित होना या प्रवाहित होना। एक साथ अनेकान्त की सिद्धि के लिए गुणवद द्रव्यं ऐसा कहा जाता है। इसके तीन लक्षण हैं सद् द्रव्य लक्षणं। उत्पाद व्यय धोव्य युक्तंसत्। गुणपर्ययवद द्रव्यं। आध्यात्मिक विकास प्रक्रिया के सोपान1.यथाप्रवृत्तिकरण- अज्ञानतापूर्वक दुःख संवेदनाजनित अत्यल्प आत्मशुद्धि को यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। जीव संयोगवश आत्म-शुद्धि के द्वार के समीप पहुँचता है। यह मन पर नियन्त्रण करने की प्रक्रिया का आरम्भ है। सांसारिक दुखों को सहते-सहते उसका कर्मावरण वर्षों नदी के पानी में पड़े पत्थर की भाँति शिथिल हो चुका हो । इस अवस्था में 167

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