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पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल गुण के दो भेद हैं- सामान्य और विशेष इस तरह यह जय वहाँ तक भेद करता जाता है जहाँ तक भेद हो सकते हैं।
ऋजुसूत्र नय- जो केवल वर्तमान काल के पदार्थों को ग्रहण करे उसे ऋजुसूत्र नय कहते हैं। शब्द नय- जो नय लिंग, संख्या, व कारक आदि के व्यभिचारों को दूर करता है वह शब्दनय है । यह नय लिंगादि के भेद से पदार्थ को भेद रूप में ग्रहण करता है। जैसे- दार(पु.) भार्या(स्त्री) कलत्र(न.) ये तीनों शब्द भिन्न लिंग वाले होकर भी स्त्री पदार्थ के वाचक हैं किन्तु यह नय स्त्री पदार्थ को लिंग के भेद से तीन रूप मानता है।
समभिरूढ़ नय जो नय नाना अर्थों का उल्लंघन कर एक अर्थ को रूढ़ि से ग्रहण करता है उसे समभिरूढ़ नय कहते हैं। जैसे वचन आदि अनेक अर्थों का वाचक गो शब्द किसी प्रकरण यह नय पदार्थ के भेद से अर्थ को भेदरूप ग्रहण करता है। तीनों शब्द इन्द्र के नाम हैं परन्तु यह नय तीनों के भिन्न
में गाय अर्थ का वाचक होता है। जैसे- इन्द्र, शक और पुरन्दर ये भिन्न अर्थ ग्रहण करता है।
एवंभूत नय- जिस शब्द का जो क्रियारूप अर्थ है उसी क्रियारूप में परिणमते हुए पदार्थ जो मन ग्रहण करता है उसे एवंभूत नय कहते हैं। जैसे- पुजारी को पूजा करते समय ही पुजारी
कहना।
जीव के भाव
औदायिक भाव-_निमित्तमूल कर्मों के उदय से होने वाले भाव औदायिक कहलाते हैं जैसे राग, द्वेष, अज्ञान, असंयम व रति आदि।
औपशमिक भाव कर्मों के उपशम अर्थात् उदय रहित अवस्था में होने वाले भाव औपशमिक भाव कहलाते हैं किन्तु इनमें आत्म परिणामों की विशुद्धि चिर स्थाई नहीं होती है। क्षयोपशमिक भाव- सामान्य मति श्रुति ज्ञान, अणुव्रत पालन आदि क्षयोपशमिक भावों के उदाहरण हैं।
क्षायिक भाव- कर्म परमाणुओं के आत्म प्रदेशों से प्रथक हो जाने पर जो परिणाम होते हैं उन्हें जीव के क्षायिक भाव कहा जाता है जैसे केवल ज्ञान व केवल दर्शनादि । पारिणामिक भाव- उपर्युक्त चार भावों के अतिरिक्त जीव के जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व व द्रव्यत्व आदि स्वाभाविक गुण होते हैं जिन्हें पारिणामिक भाव कहा जाता है।
श्रावक के षट कर्म
शब्दों का पूरा नाम
बा.भा. मं.
छ. ढ.
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त. सू. - द्र. सं.
देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयमस्तपः ।
दान चेति ग्रहस्था नाम, षट कर्माणि दिनेदिने ।।
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बारह भावना मंगतराय
छहढाला
तत्त्वार्थ सूत्र द्रव्यसंग्रह
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