Book Title: Gunasthan ka Adhyayan
Author(s): Deepa Jain
Publisher: Deepa Jain

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Page 154
________________ जहाँ ध्यान-ध्याता-ध्येय को न विकल्प वच भेदन जहाँ। चिद् भाव कर्म चिदेश कर्ता चेतना क्रिया तहाँ ।।6।। समाधि अनुष्ठान द्वारा अप्रत्यक्ष अर्थ का साक्षात्कार, क्लेश-नाश शुभाशुभ कर्म विनाश तथा निरुद्ध चित्त में सात्विक वृत्ति का निरोध करते हुए असम्प्रज्ञात समाधि की उपलब्धि होती है। जैन दर्शन में मोक्ष के लिए शुभाशुभ वृत्तियों का निरोध जरूरी माना गया है। (ब) असम्प्रज्ञात समाधि - सविकल्प समाधि की पराकाष्ठा धर्ममेघ समाधि है। पूर्रुपेण वृत्तिशून्य चित्त में जब सच्चिदानन्द स्वरूप का स्फुरण होता है तभी असम्प्रज्ञात-समाधि होती है। (स) निर्बीज समाधि श्रवण, मनन एवं ध्यान के अभ्यास दद्वारा धर्ममेघ समाधि की प्राप्ति होती है। परम विरक्ति प्रधान प्रज्ञा के प्रसाद से अनुगृहीत आत्मा परमात्मा का साक्षात्कार करती है और इस प्रकार निर्बीज योग प्राप्त होता है यद्यपि द्विविध समाधियां जीवन मुक्ति के लिए अपेक्षित कही जाती हैं तथापि निर्विकल्पक समाधि तो जीवन्मुक्ती की ही होती है। योग वशिष्ठ में वर्णित चौदह गुण श्रेणियां योग वशिष्ठ में वर्णित चौदह गुण श्रेणियों को दो प्रमुख उप-विभागों में रखा गया है। प्रथम विभाग में इन सात भूमियों का समावेश किया गया है जिनका सम्बन्ध अज्ञान से है तथा अंतिम सात भूमियों में उन अवस्थाओं को सम्मिलित किया गया है जिनका सम्बन्ध ज्ञान या जाग्रत स्थिति से है। (अ) अज्ञान की सात अवस्थाऐं- अज्ञान की ये सात अवस्थाऐं ज्ञानसार में निम्नवत् रूप में वर्णित की गई हैं- तत्रारिपिततमज्ञान तस्य भूमिरिमः श्रृणु । बीजजागृत्तथा-जागृतमहाजागृत-सुशुप्तकम।। जागृतस्वप्नस्तथा-स्वप्नः स्वप्नजागृत-सुशुप्तकम । इति सप्तविध मोहः पुनरेव परस्परम् ।। (ज्ञानसार पूर्णताष्टक) भावार्थ - (1) बीजजाग्रत अवस्था भविष्यच्चित-दिनामशब्दार्थभाजनम्। बीजरूप स्थितं जागृत बीज जागृतमुच्यते ।। यह चेतना की प्रसुप्त अवस्था है जो वनस्पति जगत की स्थिति के समकक्ष है। यहाँ अहम् भाव की अनुभूति जागृत नहीं होती। जैन सिद्धान्त के अनुसार ऐसे वनस्पतिकाय जीवों में चेतना के और अधिक विकास की क्षमता होते हुए भी व्यक्त नहीं हो पाती मात्र बीजरूप में ही इसका अस्तित्व रहता है इसीलिए इसे बीजजागृत अवस्था कहा जाता है। 154

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