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समावेश करता है जिसमें समकत्व के आचरण वाली महाव्रती की द्रव्यलिंगी अवस्थाओं तथा उत्तरोत्तर क्षय की दृढ़ता के साथ आगे साधना पथ पर बढ़ते हुए भावलिंगी अवस्थाओं स गुजरकर 14वें गुणस्थान तक पहुँचने की क्रियाएं इस आश्रम में सम्मिलित मानी जा सकती
हैं।
मनु ने मानव जीवन को नीतिमय व धर्माचरण के अनुरूप बनाने हेतु निम्न लिखित दस गुणों को आवश्यक माना है - धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिय-निग्रहः। धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् || धृति का अर्थ है धैर्य, सन्तोष, दृढ़ता, आत्मनिर्भरता स्वावलम्बन। क्षमा का अर्थ है समर्थ होकर भी दूसरों के अपकार को सहन करना। दम- मन का नियमन या नियन्त्रण करना ही दम कहलाता है। मन के संयम के अभाव में मनुष्य काम-क्रोध आदि के वश होकर पथ भ्रष्ट हो सकता है। अस्तेय- अस्तेय का अर्थ है अन्याय से, छल-कपट या चोरी से दूसरों की वस्तु का अपहरण करना । शौच का अर्थ पवित्रता से लिया जाता है। यह दो प्रकार से होती है- मृतिका और जल आदि से शुचि जो बाह्य शौच है जबकि दया, परोपकार, तितिक्षा आदि गुणों से आभ्यन्तर शौचमाना जाता है। इन्द्रिय - निग्रह - शब्दादि विषयों की ओर जाने वाली चक्षुरादि इन्द्रियों को अपने वश में रखना इन्द्रिय निग्रह है। तत्व ज्ञान को ही धी कहते हैं। विद्या का अर्थ है आत्म ज्ञान। यथार्थ बात को कहना ही सत्य है। क्रोध का कारण उपस्थित होने पर भी क्रोध का उत्पन्न न होना अक्रोध
जन दरान
समीक्षा
जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से यदि इन आश्रमों की सोपान स्थितियों का विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि जैन दर्शन में मलतः दो स्थितियाँ ही हैंगृहस्थ और संन्यास। हालांकि गृहस्थ स्थिति के उपभेद हो जाने से गृहस्थ व वानप्रस्थ आश्रम का संयुक्त रूप जैन दर्शन युत इस अवस्था में देखा जा सकता है यथा चतुर्थ व पंचम गुणस्थानधारी सम्यक्त्वी गृहस्थ इस आश्रम का अधिकारी है किन्तु उस की क्रियाएँ पंचम गुणस्थान में अति उत्कृष्ट श्रावक की हो जाती है जो वानप्रस्थ आश्रम की अवस्था से कमोवेश मेल खाती प्रतीत होती है। वैदिक परम्परा में संन्यास की एक अवस्था को ही देखा जाता है जबकि गुणस्थानक परम्परा में आन्तरिक एवं बाह्य आचरण के आधार पर कई भेद-विभेद कर दिये गये हैं यथा सातवें से चौदहवें गुणस्थान तक। इसमें उत्थान पतन दोनों के ही विधान हैं जबकि आश्रम व्यवस्था में इस तरह की व्यवस्थाओं का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है फिर भी निर्विवाद रूप से यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि दोनों ही दर्शनों में आध्यात्मिक उत्थान पथ की मूल भावनाओं में कोई विशेष अंतर नहीं है।
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