Book Title: Gunasthan ka Adhyayan
Author(s): Deepa Jain
Publisher: Deepa Jain

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Page 156
________________ स्थितियों को लेकर इस प्रकार स्पष्टता की गई है - जल नहिं पावे प्राण गमावे भटक भटक मरता। वस्तु पराई माने अपनी भेद नहीं करता।। (ब) ज्ञान की सात भमिकाएं- ज्ञान की 7 भूमिकाओं को निम्न-लिखित श्लोकों के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता हैज्ञानभूमिः शुभेच्छाख्या प्रथमा समुदाहृता। विचारणा द्वितीया सु तृतीया तनुमानसा।। सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततो संसक्त्ति नामिका। पदार्था-भाविनी षष्ठी स्प्तमी तुर्यगा स्मृता।। (उ.प्र.स. पृ.118) (1) शुभेच्छा अवस्था - स्थितः किं मूढ ? एवास्मि प्रेक्ष्येहं शास्त्र-सज्जनैः। वैराग्य-पूर्व-मिच्छेति शुभेच्छेत्युच्यते बुधैः।। इस भूमि में वैराग्य भावना के उदय से जीव शुभोपयोग का सम्यक् बोध प्राप्त करता है। इस अवस्था में वह स्वयं से संवाद करता है कि हे आत्मन् ! तू इतना मूढ़ क्यों हो रहा है? हाँ, मैं सचमुच मूढ़ तो हूँ किन्तु अब शास्त्र व सद-संगति से निजस्वरूप को कल्याण की भावना के साथ समझेंगा। (2) विचारणा अवस्था - शास्त्र-सज्जन-संपर्क-वैराग्याभ्यासपूर्वकम्। सदाचारप्रवत्तिर्या प्रोच्यते सा चिचारणा।। इस दशा में साधक सदाचार में प्रवृत्त रहने का निर्णय करता है और अणुव्रतों के पालन में प्रवृत्त हो जाता है। इसकी तुलना 5वें देशविरत नामक गुणस्थान से की जा सकती है। (3) तनुमानसा अवस्था - विचारणा शभेच्छाभ्यामिनद्रियार्थे एवं सक्तता। वक्त्रं यात्र सा तनुताभावात् प्रोच्यते तनुमानसा।। यह इच्छाओं और वासनाओं के क्षीण होने की अवस्था है। इस अवस्था में यह कहना उचित होगा कि साधक की इच्छाओं और वासनाओं के प्रति आसक्ति क्षीण-प्राय (तनुभाव शेष) हो जाती है। इसे छठवें गुणस्थान के समकक्ष माना जा सकता है। (4) सत्वापत्ति अवस्था - भूमिकात्रितयाभ्यासाच्चित्तेर्थे विरतेर्वशात्। सत्यात्मनि स्थितिः शुद्धे सत्वापत्तिरुगाहता।। यह शुद्धात्म स्वरूप की वह अवस्था है जो जीव को बाह्य पदार्थों से विरक्ति के परिणामस्वरूप प्राप्त होती है। यह आत्मा में शुद्ध परिणामों की स्थिरता का प्रतीक है। 156

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