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दिखलाई है। जैन दर्शन के प्रमुख ग्रंथ उमास्वामिरचित तत्त्वार्थ सूत्र के सातवें अध्याय में कहा गया है- "हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्योविर्तिव्रतं" अर्थात् हिंसा, अनृत, स्तेय, स्त्रीसंग, परिग्रह आदि निषिध कर्मों को न करने वाला साधक कहलाता है जिसे योग दर्शन में यम कहा जाता है। 2.नियम- कर्मफल की इच्छा न करना, सकाम कर्मों से लौटाकर निष्काम कर्म में प्रेरित करने वाले शौच, संतोष, स्वाध्याय, ईश्वर-प्राणिधान, प्रसिद्ध पाँच नियम योग दर्शन में स्पष्ट किए गए हैं। तप, संतोष, आस्तिक्य, दान, ईश्वरपूजन, सिद्धान्तवाक्य-श्रवण, ह्रीं, मति, जप एवं हुत आदि दशविध नियम भी चर्चित हैं। जैन दर्शन के गुणस्थानक सिद्धआन में इनकी उपस्थिति मानी जाती है। 3.आसन- इसमें बैठने जांघके ऊपर दोनों पाद-तल रखकर, विपरीतक्रम से हाथों द्वारा अँगूठे को पकड़ने पर पद्मासन की स्थिति होती है। जांघ के बीच में दोनों टखने रखकर सीधी तरह से बैठने पर स्वास्तिक आसन की अवस्था होती है। एक जांघ पर एक पाँव तथा दूसरी जांघ पर दूसरा दाँव रखने से वीरासन होता है। योनिस्थान में पाँव का अग्र भाग लगाकर एक पाँव को मेढ़ पर दृढ़ता से रखकर, चिबुक को ह्रदय पर स्थिर करके, स्थाणु को संयमित करके भूमध्य भाग में दृष्टि निश्चल करके सिद्धासन होता है। यह आसन मोक्ष-द्वार को खोलने वाला है। 4.प्रणायाम- आसन की स्थिरता के अनन्तर प्रणायाम का विधान है। प्राण और अपान का एक्य ही प्रणायाम है तथा वही हठयोग भी है। प्रणायाम हठयोग के बीज के रूप में भी स्वीकार किया जाता है। प्रणायाम चतुर्विध है। (अ)बाह्यवृत्ति- रेचक प्रक्रिया द्वारा उदर- स्थितवायु की बाह्य-गति को बाहर ही रोकना बाह्यवृत्ति-प्रणायाम है। (ब)अभ्यंतरवृत्ति- पूरण व्यापार द्वारा भीतर को ओर जाने वाली वायु को भीतर ही रोक लेना अभ्यंतरवृत्ति प्रणायाम है। (स)स्तम्भ-वृत्ति- रेचक ओर पूरक प्रयत्न के बिना, अवरोध प्रयत्न द्वारा एक ही बार बाह्य एवं अभ्यंतर के विचार के बिना ही गति का रोक लेना स्तम्भबृत्ति-प्रणायाम कुम्भक है। (द)तुरीय-बृत्ति- बाह्य एवं अभ्यंतर प्रवेशों में सुक्ष्म दृष्टि से वायु की बहुविध प्रयत्नों से सिद्ध होने वाली स्तम्भ-बृत्ति ही तुरीयवृत्ति प्रणायाम है। 5.प्रत्याहार- इसमें इन्द्रियों को विषयों से रके लाया जाता है इसलिए यह प्रत्याहार कहलाता है अथवा विषयों से इन्द्रियों का बलपूर्वक आहरण ही प्रत्याहार है।
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