Book Title: Gunasthan ka Adhyayan
Author(s): Deepa Jain
Publisher: Deepa Jain

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Page 141
________________ यथार्थ दिशा में रहता है क्रमशः आत्मा की ओर अग्रसर होने की संभावना बनी रहती है। जैन दर्शन में पाँचवे से ग्यारहवें गुणस्थान तक की जो स्थिति है उसकी तुलना इस अवस्था से की जा सकती है क्यों कि इस अवस्था में आत्म तत्व का दर्शन होता रहता है। धीरे-धीरे राजस भावों व आचरण से उसकी आसक्ति कम होती जाती है और सत्व गुणों की उपस्थिति बढ़ती जाती है। यह योग पूर्णता या मोक्ष जैसी स्थिति है। सत्व गुणों की अवस्था आदर्श नैतिक स्तर है। जैन दर्शन में इसे चरमादर्श विकास या 12वें गुणस्थान की दशा के साथ मापा जा सकता है। यहाँ साधक को कुछ करने को नहीं रह जाता। डॉ. राधाकृष्णन का कथन है कि सर्वोच्च आदर्श नैतिक स्तर से ऊपर उठकर जीव आध्यात्मिक स्तर पर पहुँचता है। सात्विक अच्छाई भी अपूर्व है क्योंकि इस अच्छाई के लिए विरोधी के साथ संघर्ष की शर्त लगी रहती है। गीता के अनुसार त्रिगुणातीत अवस्था साधना की चरम परिणति एवं विकास की अंतिम कक्षा है। गुणातीत अवस्था को प्राप्त जीव इन गुणों से विचलित न होकर उनमें होने वाले परिवर्तनों को सम्यक् भाव से देखता है। गीता दर्शन के अनुसार ऐसा इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि गुणातीत होकर आत्मा को ज्ञान गुण सम्यक् हो जाता है। जैन दर्शन में इसकी तुलना सयोग केवली नामक 13वें गुणस्थान से तथा बौद्ध दर्शन की अर्हत भूमि से की जा सकती है। अंतिम अवस्था त्रिगुणात्मक देह मुक्ति की है जिसमें आत्मा वरण करता है परमात्म स्वरूप का आठवें अध्याय में श्री कृष्ण ने कहा है कि में तुझे उस परम पद अर्थात् प्राप्त करने योग्य स्थान को बताता हूँ जिसे विद्वानगण अक्षर या अक्षरपरमात्मा कहते हैं जिसमें वीतराग मुनि ब्रह्मचर्य के साथ प्रवेश करते हैं। योग चंचलता को रोक कर प्राणशक्ति को शीर्ष मूर्धा में स्थिर कर ओम के उच्चारण के साथ मेरे अर्थात् आत्म तत्व में विलीन हो जाते हैं। कालिदास ने भी योग द्वारा शरीर त्यागने का निर्देश दिया है। जैन दर्शन की अयोगकेवली नामक 14वें गुणस्थान की अवस्था से इसकी तुलना की जा सकती है। पहले अशुभ व चंचल वृत्ति से परे होना सम्यग्दृष्टि के साथ शुभ तत्पश्चात शुद्धाचरण में प्रवृत्त होकर आत्म विशुद्धि गुणातीत आत्मा इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग में सम रहकर सभी आरम्भ परिग्रहों से परे होकर योग बल से मन के व्यापारों का निरोध करती है। अंत में यह कहा जा सकता है कि यद्यपि गीता में गुणस्थानों की भाँति क्रमिक आध्यात्मिक विकास के सोपानों का व्यवस्थित स्वरूप में वर्णन नहीं है तथापि गीता के सार को संक्षेप में नियत गुणस्थान बिन्दुओं के आधार को निम्न रूप से भी स्पष्ट किया जा सकता है। 141

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