Book Title: Gunasthan ka Adhyayan
Author(s): Deepa Jain
Publisher: Deepa Jain

View full book text
Previous | Next

Page 146
________________ हीनयान में आध्यात्मिक विकास- बौद्ध धर्म में भी संसारी जीवों की दो श्रेणियां हैं1-पृथग्जन- जो मिथ्यादृष्टि जीव की तरह है तथा 2-आर्य- जो सम्दृष्टि सहित हैं। पृथग्जन की श्रेणी को पुनः दो भागों में बाँटा गया है यथा- (अ) अंध पृथग्जन भूमि- जो मिथ्यात्व या अज्ञान की द्योतक है तथा (ब) कल्याण पृथग्जनभूमि- जिसे मज्झिम निकाय में धर्मानुसरी या श्रद्धानुसरी भूमि कहा है इस भूमि का साधक निर्वाण भूमि की ओर अभिमुख तो होता है किन्तु उसे प्राप्त नहीं कर पाता । हीनयान सम्प्रदाय मानता है कि आर्य या सम्यकत्व पर आरूढ़ होकर निर्वाण सिद्धि की प्राप्ति पथ पर निम्न चार भूमियों से होकर गुजरना होता है यथा- स्रोतापन्न भूमि- सकृदागामी भूमि, अनागामी भूमि व अर्हत भूमि। इनके लक्षणों का विस्तृत विवरण इस प्रकार है1-स्रोतापन्न भूमि- स्रोतापन्न का शाब्दिक अर्थ है- साधना या कल्याण मार्ग पर बढ़ने वाला साधक। इस स्थिति को प्राप्त करने हेतु साधक को निम्न संयोजन या बंध का क्षय करना होता है- (अ) सत्काय दृष्टि- देह में ममत्व, शरीर को आत्मा मानना (स्वकाये दृष्टिः चन्द्र कीर्ति) (ब) संदेहात्मकता तथा (स) शीलव्रत परामर्श- व्रत-उपवास में आसक्ति या मात्र कर्मकाण्ड में रुचि। इन मिथ्या क्रियाओं की समाप्ति पर साधक इस भूमि से पतित नहीं होता और इस भूमि में रहते हुए चार अंगों से सम्पन्न हो जाता है- बुद्धानुस्मृति- बुद्ध में निर्मल श्रद्दा से युक्त, धर्मानुस्मृति- धर्म में निर्मल श्रद्धा से युक्त, संघानुस्मृति- संघ में निर्मल श्रद्धा से युक्त तथा शील एवं समाघि से युक्त हो जाता है। इनके चलते साधक के आचार-विचार दोनों शुद्धता को प्राप्त होते हैं वह अधिकतम सात जन्मों में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जैन दर्शन में वर्णित सातवें अप्रमत्त संयत गुणस्थान की तुलना स्रोतापन्न भूमि से की जा सकती है। वासना की विमुखता, शुद्ध-सम्यक विचार , नैतिक आचार, तीव्रतम क्रोधादि कषायों का क्षय, उपशम या क्षय आदि घटकों की कसोटी पर इन दोनों के मध्य समानता दिखती है। स्रोतापन्न अवस्था में कामधातु (वासनाएँ) तो समाप्त हो जाती हैं लेकिन रूप धातु (आश्रव अर्थात, राग-द्वेष व मोह) शेष रहती हैं । (ब) सकृद्गामी भूमि- इसकी तुलना आठवें गुणस्थान से की जा सकती है जहाँ बन्ध के मूल कारणों राग-द्वेष पर प्रहार कर आगामी आध्यात्मिक अवस्था को निर्बाध बनाया जाता है जिसे जैन दर्शन में क्षीणमोह गुणस्थान कहा गया है उसे यहाँ अनागामी भूमि कहा गया है। इस भूमि में जाने से पूर्व साधक आश्रव-क्षय अर्थात, कामराग (वासना) तथा प्रतिध(वेष) का क्षय करता है आश्रव निरोध ही सकृद्गामी भूमि पर साधक को स्थापित करता है। जैन दर्शन के अनुसार यदि साधक इन गुणस्थानों में मृत्यु को प्राप्त होता है तो तीसरे जन्म में निर्वाण को प्राप्त कर लेता है जबकि बौद्ध दर्शन के अनुसार सकृदागामी भूमि 146

Loading...

Page Navigation
1 ... 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184