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अध्याय -9
गुणस्थान का तुलनात्मक विवेचन
विश्व के प्रमुख आध्यात्मिक दर्शनों से जुड़ी अवधारणाएं एवं गुणस्थानकों से उनकी तुलनाजैन दर्शन में वर्णित गुणस्थान सिद्धान्त की अन्य धर्मों में वर्णित स्वरूपों की स्थिति अथवा समान ध्येय सिद्धि हेतु उल्लिखित व्यवस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने से पूर्व यह आवश्यक है कि गुणस्थान सिद्धान्त की मंशा व स्वरूप का सामान्य अवबोधन कर लिया जाय । जैन दर्शन - जैन दर्शन का दूसरा नाम आर्हत है अर्थात जो सर्वज्ञ, राग-द्वेष रहित, त्रैलोक्यपूजित, यथास्थितार्थवादी व सामर्थ्यवान सिद्ध पुरुष हैं। सर्वज्ञो जीतरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः। यथास्थितार्थवादी च देवोर्हत्परमेश्वरः।। मुक्ते न केवली न स्त्री मोक्षमेति दिगम्बरः। प्राहुमेषामयं भेदो महान् श्वेताम्बरैः सह || संसार में सर्वथा सत् या सर्वथा असत् कोई भी वस्तु नहीं है । इसी से स्याद्वाद सिद्धान्त का प्रार्दुभाव हुआ जिसे सप्तभंगी नय कहा जाता है। ये नय इस प्रकार हैं(1) स्याद् अस्ति- किसी अपेक्षा से कोई वस्तु विद्यमान है। (2) स्यान्नास्ति- किसी अपेक्षा से कोई वस्तु विद्यमान नहीं है। (3) स्यादस्ति च नास्ति च- किसी अपेक्षा से कोई वस्तु एक साथ विद्यमान व
अविद्यमान दोनों है। (4) स्याद् अव्यक्तव्यम- किसी अपेक्षा से कोई वस्तु वर्णनातीत है।
स्यादस्ति अव्यक्तव्यम्- किसी अपेक्षा से कोई वस्तु अविद्यमान है और किसी अपेक्षा
से कोई वस्तु का रूप निर्दिष्ट नहीं किया जा सकता है। (6) स्यान्नास्ति अव्यक्तव्यम् च- किसी अपेक्षा से कोई वस्तु का रूप है भी तथा वह
अव्यक्त भी है। (7) स्यादस्ति च नास्ति च अक्तव्यम् च- किसी अपेक्षा से कोई वस्तु एक साथ विद्यमान
व अविद्यमान दोनों है और किसी अपेक्षा से कोई वस्तु का रूप निर्दिष्ट नहीं किया
जा सकता है। जैन दर्शन में कर्म के बन्धन और कर्म के विच्छेद को लेकर मुख्य सात तत्त्वों को माना गया है- जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष। इस दर्शन में दो ही प्रमाण मान्य
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