Book Title: Gunasthan ka Adhyayan
Author(s): Deepa Jain
Publisher: Deepa Jain

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Page 131
________________ स्थिति में नहीं रह सकता। निश्चय ही वह अपनी रुचि व प्रेरणात्मक वातावरण का सहारा लेकर दोनों में से किसी एक दशा का अपना लेता है। चतुर्थ गुणस्थान में साधक की मनोदशा में सम्यकत्व श्रद्धान के प्रति दृढ़ता तो होती है किन्तु आचरण पथ पर अनुगमन का साहस एवं वातावरण उपलब्ध नहीं होता। यहाँ संकल्प-विकल्प रूपी चंचलता (उत्थान-पतन दोनों संभावनाएँ) विद्यमान रहती है। हाँ नियति की प्रधानता होने के बावजूद यदि जीव थोड़ा सा पुरुषार्थ लक्ष्य-दिशा में कर लेता है तो वह क्षय, उपशम या क्षयोपशम को ग्रहण करते हुए सदाचारी बन जाता है। वास्तव में समस्या मैं-मैं की है। विकास क्रम में इससे परे हटते हुए हम की ओर बढ़ना होता है किन्तु यह भी मुक्ति का साधन नहीं है इसके लिए निर्विकल्पी होना पड़ता है। आध्यात्मिक विकास प्रक्रिया में यह ग्रंथि भेद दो प्रकार से होता है1. यथाप्रवृत्तिकरणः- संयोगजनित वातावरण पाकर स्व की तरफ यथार्थ बोध तथा यथार्थता को सिद्ध करने हेतु मानसिक तैयारी व दृढ़ता का नाम ही यथाप्रवृत्तिकरण है। 2. अपूर्वकरणः- सोचे हुए यथार्थ मार्ग पर चलने के साहस का नाम है अपूर्वकरण जहाँ आत्मा जड़ प्रकृति पर विजय प्राप्त करता है। मनोविज्ञान की भषा में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि चेतन अहम् (ego) वासनात्मक अहम्(id) पर जय करते हुए धीरे धीरे आदर्श(super ego) की ओर बढ़ता है। यह स्थिति उसे आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में अपूर्व शान्ति के रूप अनुभूत होती हैं। आदर्श पथ पर अनुगमन का आरम्भ अणुव्रती या देशव्रती श्रावक के रूप में होता है इसमें क्रोधादि वृत्तियों पर नियंत्रण का अभ्यास साघक 5वें-6वें और 7वें गुणस्थानों में करता है इसमें अभी भी बाह्याचरण व पुण्य रूप शुभ वृत्तियों का सहारा लिया जाता है। इस परिशोधन प्रक्रिया(4मास का समय) में यदि दृढ़ता कायम रहती है तो विकास होगा अन्यथा पतन निश्चित है क्योंकि आन्तरिक अभिव्यक्ति पर नियन्त्रण न होने से ये प्रमादवश होने वाली वासनात्मक वृत्तियां उसके अन्तर-मन को झकझोरती रहती है। नियति बनाम पुरुषार्थ की दृष्टि से देखें तो 1-7 गुणस्थान तक नियति अर्थात् संयोगों की प्रधानता रहती है किन्तु यहाँ पुरुषार्थ का भाग अति अल्प होता है। 7वें गुणस्थान के उत्तरार्ध से 8वें गुणस्थान में दुष्प्रवृत्तियों से लड़ने हेतु वह शक्ति संचय का प्रयास करता है। इसीलिए आगे गुणस्थानों में अथक मनोबलयुक्त पुरुषार्थ अपरिहार्य होता है। आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान से ऊपर की स्थितियां (8-14 गुणस्थानों तक) मात्र आचरण खेल नहीं रह जाती अपितु मनोबल रूपी नैतिक दृढ़ता व परिपक्व विश्वास का सवाल बन जाती है जहाँ भावनाएं लक्ष्य सिद्ध (आत्म विशुद्धि) को यथोचित आकार प्रदान करती हैं। 8वें से पूर्व के गुणस्थानों तक वह आगे की 131

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