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(ब) रजो या राजसी गुणभौतिकवादिता या भोग विलास की लालसा तृष्णा और इसकी प्राप्ति हेतु संघर्ष प्रेरित एवं अनिश्चय से भरी हुई जीवन की स्थिति। गीता के अध्याय 18 श्लोक 6 में भी इसी विचार की पुष्टि की गई है। राजसी गुणों को आगे निम्न श्लोकों के द्वारा समझाया गया है- रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मको शुचिः। हर्षशोकाविन्तः कार्य राजसःपरिकीर्णतः।।18127।। इसका अर्थ इस प्रकार है- राज वासनाओं में राग रखने वाले को भी सदा अपने कर्म फल की आकांक्षा करने वाला हिंसात्मक प्रवृत्ति वाला अपवित्र सदा ही हर्ष- शोक से प्रभावित व्यक्ति राजसी प्रकृति वाले माने जाते हैं। राजसी प्रकृति के लक्षणगीता में इन लक्षणों को इस सूक्ति के माध्यम से स्पष्ट किया है- ध्यायतोविषयान्पुन्सः संग्स्तेषूपजायते। संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोमिजायते।। 21 62|| क्रोधोद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृति विभमः। स्मृतिभंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणस्यति।। 21 63।। जिसका अर्थ है कि विषयध्यान परिग्रह में आसक्ति बढ़ाने वाले होते हैं। आसक्ति से काम, काम से क्रोध, क्रोध से सम्मोह तथा सम्मोह से स्मृति विभ्रम हो जाता है। स्मृति विभ्रम से बुद्धि नाश हो जाती है और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का नाश हो जाता है। राजसी प्रकृति की परिणति- गीता में राजसी प्रकृति की लाक्षणिकताओं का विस्तार करते हुए उसके प्रभावों को प्रक्षेपित कर निम्न सूक्ति के माध्यम से स्ष्टता की गई हैअज्ञश्चाश्रद्दघानश्च संशयात्मा विनश्यति। नायं लोकोस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। 41 40। जिसका अर्थ- है कि जिसमें सत्य-असत्य, आत्म-अनात्म तथा कर्तव्य-अकर्तव्य के मध्य विवेकपूर्ण निर्णय करने की शक्ति नहीं है अर्थात् जो अज्ञ है एवं जिसे पाप-पुण्य कर्मफल व स्वर्ग मोक्षादि में संशय है वे अश्रद्धालु हैं इन्हें परमार्थभ्रष्ट माना जा सकता है। गुणस्थान के साथ तुलना की दृष्टि से राजसी व तामसी गुण मिथ्यात्व गुणस्थान में गर्भित माने जा सकते हैं। (स) सत्त्व गुणयह स्थिति आध्यात्मिक नैतिक आदर्श आचरणों को समाहित करते हुए जीवन के उच्चतम ध्येय की स्थिति में आधारभूत स्तम्भ की तरह है। इन गुणों से युत होकर जीव अपना आध्यात्मिक उत्थान का सच्चे सुख का अहसास करता है। यह गुण चरम परिणति की साधना का शुद्ध साधन है। सात्विक कर्ता व कर्म की व्याख्या करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम्। अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तसात्विक मुच्चयते।। 181 23|| अर्थात गृहस्थ या संन्यासी जो राग-द्वेष आसक्ति रहित होकर कर्म फल की
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