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देशोनपूर्व-कोटि, पंचमकं त्रयोदशं च पुनः||भाष्यकार महर्षि।। सास्वादन की षडावली (छः आवली) 33 सागरोपम चतुर्थ गुणस्थान तथा पूर्वकोटि वर्ष देशविरति और सयोगकेवली गुणस्थान की है। पंचम गुणस्थानधारी जीव देव गति में उत्पन्न होता है तथा जघन्य 3 भव व उत्कृष्ट 15 भव में मोक्ष जाता है। प्रत्याख्यानी कषाय के उदय से यहाँ आत्मा सर्वविरति को नहीं स्वीकार पाती वह अप्रत्याख्यानी कषायों से मुक्त होती है। श्रावक के अणुव्रतों का पलन करना देशविरत गुणस्थान है।शास्त्र में श्रावक तीन प्रकार के बताए हैं। छहढाला में प. दौलतराम जी ने कहा है
उत्तम, मध्यम, जघन्य त्रिविध के अन्तर आतम ज्ञानी।।छ.ढा.-3|| उत्तम श्रावक - सचित्त आहार का त्यागी, नित्य एकाशन तप करने वाला, निर्मल ब्रह्मचर्य का पालक, महाव्रती होने की तीव्र इच्छा से ग्रह व्यापार का त्याग करने वाला उत्क्रष्ट श्रावक है। मध्यम श्रावक - मार्गानुसरित के 35 गुणों का धारक, ग्रहस्थ के षट आवश्यक व 12 व्रतों का पालन(न्याय वैभव सम्पन्न) करने वाला मध्यम श्रावक है। जघन्य श्रावक- आकुट्टी जाति हिंसा, मद्यपान, माँसाहार व सप्त व्यसन का त्यागी व नमस्कार मंत्र का धारक जघन्य श्रावक है। 6. प्रमत्तसयत या सर्वविरति सम्यग्दृष्टि गणस्थानप्राकर्षण मत्ताः प्रमत्ताः, सम्यग, यताः, विरताः, संयताः। प्रमत्ताश्च ते संयमाश्च प्रमत्त संयताः। जो प्रमत्त होते हुए भी संयत होते हैं, उन्हें प्रमत्त संयत कहते हैं ।
संजणणो कसायाणु दयादो, संजमो हवे जम्हा।
भल-जणाम-पमादो विय तम्हा हु पमत्त विरदोसो।।गो. जी. 32|| इस गुणस्थान में आने वाला जीव सकल संयम को रोकने वाली प्रत्याख्यानावरण कषायों का उपशम होने से सकल संयमी तो होता है, किन्तु उसमें उस संयम के साथ- साथ संज्वलन और नौ कषायों का उदय रहने से संयम में मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद भी होता है अतएव इस गुणस्थान को प्रमत्तविरत कहते हैं। प्रमाद के भेद- प्रमाद के पन्द्रह भेद हैं- यथा
विकहा तहा कसाया इंदिय गिद्धातहेव णय योग।
चदु-चदु पणमेगेगं हाँति पमादा हु पण्णस्सं||गो.जी.34।। चार विकथाऐं- स्त्रीकथा, भोजन कथा, राष्ट्र कथा, राज कथा। चार कषाय- सक्रोध, मान, माया, लोभ। पाँच इन्द्रिय- स्पर्शन, रसना, घ्राण,चक्षु और कर्ण। एक निद्रा, एक स्नेह प्रीति भाव, इस प्रकार प्रमाद के कुल पन्द्रह भेद हैं। सर्वविरति गणस्थान में जीव हिंसादि अनैतिक आचरण का पूर्णरूप से त्याग करके सम्यक्त्व के मार्ग पर दृढ़ता से बढ़ना आरम्भ करता है उसमें कषायादि परिणामों के बाह्य प्रकटीकरण का अभावसा है जाता है यद्यपि वह आंशिक बीजरूप में विद्यमान रहती है। यह उसके मन में व्याकुलता पैदा करती है ऐसा तब ही होता है जब उसकी आत्मा इस बीजरूप प्रवृत्ति को छोड़ने के लिए छटपटाती रहती हो किन्तु छोड़ नहीं पाती। यदि वह इन अशुभ प्रवत्तियों पर
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