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आयु और देवायु) विच्छेद सत्ता रहती है। जिस आत्मा ने इस गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व तो प्राप्त कर लिया है किन्तु अभी उनका भव भ्रमण शेष है उसमें अनन्तानुबंन्धी कषाय चतुष्क और दर्शन मोहत्रिक के विच्छेद हो जाने से 141 कर्म प्रकृतियों की सत्ता रहती है जबकि चरम शरीरी के इसके अलावा मनुष्यायु शेष आयुत्रिक(10) का विच्छेद हो जाने से 138 कर्म प्रकृतियों की सत्ता रहती है। इस गुणस्थान में 104 कर्म प्रकृतियों का उदय संभव है (मिश्र गुणस्थान की 100 में से एक मिश्र मोहनीय कर्म + सम्यक्त्व मोहनीय, देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्व, तिर्याञ्चानुपूर्वी व नरकानुपूर्वी (5)। उदय की मान्य 122 कर्म प्रकृतियों में से यहाँ 18 कर्म प्रकृतियों(अनन्तनुबन्धी कषाय चतुष्क तथा मोहत्रिक में से मिथ्यात्व मोह और मिश्र मोह(6) इसके
म कर्म की 12 कर्म प्रकतियों - सक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, आतप, स्थावर, एकेन्दिय जाति वि इन्द्रिय जाति, त्रिन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति नाम कर्म, आहारक शरीर, आहारक आंगोपांग और अर्द्धनारांच नामकर्म) का उदय नहीं होता। इस गुणस्थान में उदय एवं उदीरण योग्य कर्म प्रकृतियों की संख्या समान होती है। इस गुणस्थान में सम्यक्त्व के भेद इस प्रकार किए गये हैं - अ- औपशमिक सम्यक्त्व- इस का जघन्य व उत्कृष्ट काल एक अन्तर्महर्त का है। इसमें सम्यक्त्व का स्पर्श अधिकतम पांच बार होता है। यह आत्मा निश्चय से मोक्ष जाने वाली होती
है।
आ- क्षायोपशमिक सम्यक्त्व- यह चौथे से सातवें गुणस्थान तक होता है। इसकी जघन्य स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट छह सागरोपम है। इसकी प्राप्ति जीव को सांसारिक जीवन में अनेक बार होती है। इ- क्षायिक सम्यक्त्व- मिथ्यात्वादि मोहनीय की सात कर्म प्रकृतियों को मूल से छेदकर आत्मा क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है। यदि पूर्व से आयुष्य बंध नहीं होता तो वह आत्मा उसी भव में क्षपक श्रेणी चढ़कर मोक्ष जाती है। क्षायिक सम्यक्त्वधारी अधिकतम चार या पांच भव धारण करता है। सम्यक्त्व की यह स्थिति सादि अनन्त है अर्थात् यह एक बार प्राप्त होने के बाद आत्मा से कभी अलग नहीं होता। यह चौथे से चौदहवे गुणस्थान तक पाया जाता है। क्षायिक सम्यक्त्व हेतु वज्र वृषभ नाराचं संघनन अनिवार्य है। ई- वेदक सम्यक्त्व- क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में विदयमान आत्मा जब मोहनीय कर्म बल के अंतिम पदगल का भेदन करके जिस परिणाम को प्राप्त होती है वह वेदक सम्यक्त्व है। इसके तुरंत बाद क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। उ- सास्वादन सम्यक्त्व- उपशम सम्कत्व से च्युत आत्मा जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हो जाती तब तक उसके जो परिणाम होते हैं उसे सास्वादन सम्यक्त्व कहा जाता है। (दूसरी गुणस्थान स्थिति)
न- मिश्र मोहनीय कर्म दलिकों का भेदन करने वाले को मिश्र सम्यक्त्व होता है। इसका काल अन्तर्मुहुर्त प्रमाण है।
ऊ-मि