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कर्मों की सत्ता रहती है। उदय एवं उदीरणा की 81 कर्म प्रकृतियों में से निद्रात्रिक एवं आहारविक (5) कम होने से 76 का ही उदय सम्भव है जबकि उदीरणा मात्र 73 की ही सम्भव है(वेदनीयविक और आयुष्य कर्म की नहीं = 3)
8- अपूर्वकरण गुणस्थान - ( निवृत्तिकरण) व कर्म सिद्धान्त
कर्म रहितता (कषाय रहित ) के अपूर्व अनुभव होते हैं। इस गुणस्थान में रहते हुए क्षपक श्रेणीं पर चढ़ने वाली आत्मा संज्वलन कषाय का धीर-धीरे क्षय करती है। जबकि उपशम श्रेणीं पर चढ़ने वाली आत्मा इसका उपशम करती है। यहाँ आत्मा स्थिति घात, रसघात, गुणश्रेणि, गुणसंक्रमण और अपूर्वस्थिति रूप 5 कार्य करती है। इस गुणस्थान की स्थिति अन्न्र्मुहूर्त है। जबकि अध्यवसाय का स्थान असंख्यात लोकाकाश प्रदेशतुल्य है।
तो मुहुत्तकालं गमिउण अघाववत्त कारणं ।
पडि समय सुज्झतो अपुव्वकरणं समलिप्पई ।। 5011 गो.जी.
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अघःप्रवत्तकरण के अन्तर्मुहूर्त काल को व्यतीत करके सातिशय अप्रमत्त साधक बन प्रति समय विशुद्ध होता हुआ जब वह अपूर्व परिणामों को प्राप्त करता है तब वह अपूर्वकरण गुणस्थान वाला कहलाता है। आठवें गुणस्थान में प्रवेश करने वाले जीव दो प्रकार के होते हैं उपशमक और क्षपक। जो विकासगामी आत्मा मोह के संस्कारों को दबा करके आगे बढ़ता है और अन्त में सर्व मोहनीय कर्मप्रकृति का उपशम कर देता है। इसके विपरीत जो मोहनीय कर्म के संस्कारों को जड़ मूल से उखाड़ते जाते हैं वे क्षपक कहलाते हैं।
इस गुणस्थान के प्रारम्भ में 58 का, मध्य में 56 का और अन्त में 26 ही बंधन योग्य कर्मप्रकृतियां रह जाती हैं। इससे बड़ी कमी नामकर्म की होती है- 31 में से मात्र एक कर्म प्रकृति ही शेष बचती है। ज्ञानावरणीय की 5, दर्शनावरणीय की- 4, (पाँच निद्राओं को छोड़कर), वेदनीय की-1, 9मात्र सातावेदनीय), मोहनीय की - 9 कषाय, नामकर्म की - 2, गोत्र की1, और अन्तराय की - 5 | सत्ता की अपेक्षा से प्रारम्भ में अधिकतम 48 तथा न्यूनतम 141, उपशम श्रेणीं वालों को 139 एवं क्षपक श्रेणी वाले साधकों को 138 कर्म प्रकृतियों की सत्ता रहती है। उदय एवं उदीरणा की अपेक्षा से पूर्ववर्ती 76 में सम्यक्त्व मोह और अन्त में तीन संहनन कम होने से उदय योग्य 72 तथा उदीरणा योग्य69 कर्मप्रकृतियां रह जाती हैं। इस गुणस्थान में बंध की अपेक्षा से 56 उदय की अपेक्षा से 76 तथा सत्ता की अपेक्षा से 138 कर्म प्रकृतियां रहती हैं।
9. अनिबृत्तिकरण बादर सम्पराय गुणस्थान व कर्म सिद्धान्त -
इस गुणस्थान में उदय होने वाली कषाय का क्षय या उपशम जीव करता है। इसकी भी उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त है। धवला की इस गाथा में कहा गया है कि समान समयावस्थित- जीव परिणामानां निर्मेदेन वत्तिः निवृत्तिः । ध. 1/1/17/183।। समान समावर्ती जीवों के परिणामों की भेद रहित वृत्ति को निवृत्ति कहते हैं। नोवें गुणस्थान हुए भावोत्कर्ष की निर्मलता अतिशीघ्र हो जाती है इस गुणस्थान में विचारों की चंचलता नष्ट होकर उनकी सर्वत्र गामिनी- वृत्ति केन्द्रित और समरूप हो जाती है इस अवस्था में
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