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(आ) समिति- ईर्योभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितिः।5। ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उत्सर्ग ये पांच प्रकार की समिति कही गई हैं जिनका अनुकरण साधक मुनिराज करते हैं। अनुप्रेक्षा-भावनाएं - अन्प्रेक्षाएं 12 हैं जिनका राग-द्वेष रहित गहन चिन्तन उत्कृष्ट साधक आत्म-शुद्धि हेतु करते हैं। अनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा, संसारानुप्रेक्षा, एकत्वानुप्रेक्षा, अन्यत्वानुप्रेक्षा, अशुचित्वानुप्रेक्षा, आश्रवानुप्रेक्षा, संवरानुप्रेक्षा, निर्जरानुप्रेक्षा, लोकानुप्रेक्षा, बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा और धर्मास्तिख्यातत्वानुप्रेक्षा आदि तत्त्वार्थ सूत्र में वर्णित उपर्युक्त बारह अनुप्रेक्षाएँ गुणस्थान के भावलिंगी पक्ष का अर्थात् 9-14वें गुणस्थान की ओर आगे बढ़ने के प्रावधानों के समरूप हैं। परिषहसाधना व तपस्चर्या का व्यवहार मार्ग ही परिषह हैं जिन्हें सम भावों से सहते हुए आत्मा को दृढ़ता के पथ पर आगे ले जाया जाता है। उमास्वामीजी ततत्वार्थसूत्र के नौवे अध्याय में कहते हैं-मार्गाच्वननिर्जरार्थ परिषोढ़व्याः परिषहाः।।8।। अर्थात् संवर मार्ग से च्युत न होने के लिए एवं कर्मों की निर्जरा हेतु सहन करने योग्य हों वे परिषह कही गई हैं। ये 22 हैं। क्षुप्तिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोधवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमल सत्कारपुरुस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि।।७।। इन 22 परिषहों कुछ आपस में परस्पर विरोधी हैं यथा- शीत-उष्ण, शय्या व चर्या आदि जो एक साथ संभव नहीं है। अतः एक समय में आत्मा अधिकतम 19 परिषह ही सहन करता है। एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोन विंशितेः।।17।। गुणस्थान विकास क्रम में इन परिषहों का स्थान 7वी - 9वी अवस्था की योग्याताओं के तहत रखा जा सकता है। किस गणस्थान में कितने परिषह होते हैं? सूक्ष्मसांपरायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दशः।।10।। एकादश जिने।।11|| बादरसाम्पराये सर्वे।।12।। सूक्ष्मसाम्पराय नामक 10वें और छद्मस्थ वीतराग अर्थात् 11वें उपशान्तमोह तथा 12वें क्षीणमोह नामक गुणस्थान में 14 परिषह होते हैं- क्षुदा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, प्रज्ञा और अज्ञान। इसलिए कहा जाता है कि मोह व योग के निमित्त से होने वाली आत्म-परिणामों की तरतमता को गुणस्थान कहते हैं। अयोग केवली नामक 13वें गुणस्थान में उक्त 14 में से अलाभ, प्रज्ञा व अज्ञान को छोड़कर शेष 11 परिषह ही होते हैं। बादर साम्पराय अर्थात स्थूल कषाय वाले छठवें से 9वें गुणस्थान तक सभी परिषह रहते हैं क्योंकि इसमें कर्मों का उदय कारणभूत होता है।
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