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इस उपरोक्त मिथ्यात्व की तीव्रता उस समय और अधिक बढ़ जाती है जब वह इस समझे हुए असत् को सत् साबित करने का हठाग्रह धारण कर लेता है एवं इसमें दुष्प्रवृत्त हो जाता है।
अवबोधन की एक अन्य स्थिति विभ्रम है जिसमें जीव की भोगासक्ति व पर पदार्थों या भौतिक पदार्थों के प्रति लालसा इतनी तीव्र होती हैं कि मिथ्यात्वी मृगमारीचिका की ओर उसका रुझान इस कदर गहराता जाता है कि वह उस तत्त्व के न होने पर भी उसकी उपस्थिति का श्रद्धान कर बैठता है- स्वपनिल दशा की भाँति । इसी विभ्रम-जनित पथ का अन्धानुकरण करते हुए मन व बुद्धि पर नियन्त्रण गँवा कर मिथ्यात्व के दलदल में फँसता
चला जाता है।
अवबोधन की भ्रम-विभ्रम नामक स्थितियां पतोन्मुखी तृतीय मिश्र व द्वितीय सासादन गुणस्थान में देखने को मिलती हैं। संशय होने पर ही वह सम्यकत्व से पतित होता है तथा मोहासक्ति व विभ्रम के चलते सास्वादन गुणस्थान में गिरता हुआ मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होता है।
आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान से यदि आत्मा उपशम श्रेणी का आश्रय लेकर ग्यारहवें उपशान्त मोह गुणस्थान तक बढ़ती है तो आत्मा उसी क्रम में पतोन्मुख होती हुई नीचे की ओर गिरती है जिस क्रम में आरोहण किया था जबकि क्षपक श्रेणी का आश्रय लेकर ग्यारहवें गुणस्थान को स्पर्श किये बिना क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में पहुँचती है। क्षपक श्रेणी सम्यक्त्वी दृढ़तापूर्ण अवबोधन के परिणाम स्वरूप प्राप्त होती है जिसमें अंतिम लक्ष्य की सिद्धि या कर्म मुक्ति सुनिश्चित हो जाती है जबकि उपशम श्रेणी सम्यक्त्वी अवबोधन की अस्थायी दृढ़ता का प्रतीक है जिसमें उपशम किये गये कषायादि वासनात्मक विकारी परिणाम पुनः सक्रिय होकर जीव को पतोन्मुखी बना सकते हैं। जीव इस स्थिति में किसी भी गुणस्थान से सम्यक् अवबोधन से युत होकर पुनः क्षायकत्व ग्रहण करके शाश्वत लक्ष्य की ओर गति कर सकता है।
जिस प्रकार मूर्च्छा, मूढ़ता व अज्ञान मिथ्यात्वी तीव्रता या मोहान्धकारी अवबोधन का प्रतीक है ठीक इसके विपरीत तेरहवें चौदहवें गुणस्थान में केवलज्ञानरूपी आभा के स्वरूप में सम्यक्तवी अवबोधन की पराकाष्ठा व इससे जनित सुखद अनुभूति के दर्शन होते हैं। नोट- भांन्ति से युक्त व्यक्तियों में उपयुक्त अवबोधन के अभाव में सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार होने की संभावना बनी रहती है।
अतिचार अज्ञान रहित अवबोध का परिणाम है
जबकि अनाचरण असत, हठाग्रह के चलते स्थान लेता है।
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