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शिकागो सम्मेलन में 'शून्य ' पर दिया गया वह वक्तव्य स्मृति पटल पर अंकित हो जाता है जिसने सम्पूर्ण विश्व को झकझोर कर रख दिया। कहने का आशय यह है कि निर्विकारी शून्यता अर्थात नियन्त्रित व क्षय की जा चुकी मनोवृत्तियां ही जीव की आध्यात्मिक पूर्णता का द्योतक सिद्ध हो सकती हैं। प्रमख मनोवैज्ञानिक आधारों की सापेक्षता क्रम में गणस्थान की व्याख्या -
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अवबोधन (Perception)
अवबोधन का अर्थ है- ज्ञान, समझ या श्रद्धान जो किसी तत्त्व के (जीवादि सप्त तत्त्व) सापेक्ष होता है। सामान्य तौर पर इस नियत समझ के पीछे उसका ज्ञान या अज्ञान प्रमुख कारक होता है। यहाँ तत्त्व बोध की प्रमुख स्थितियां इस प्रकार हो सकती हैं यथा- तत्त्व या वस्तु का जो स्वरूप है उसे निष्पक्षता या तटस्थता के साथ उसी रूप में समझना तथा उसके एकानेक रूपों को स्वीकारना। उमास्वामीकृत तत्वार्थ-सूत्र के गुण पर्ययः वदद्रव्यं।।38।। नामक सूत्र के द्वारा इसकी पुष्टि की जा सकती है। इस प्रकार के बोध को सम्यक् बोध कहा जाता है। अवबोधन आचरण (चारित्र या व्यवहार) की दिशा निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। तत्त्व के प्रति सम-दृष्टिपूर्ण या यथार्थ समझ को सम्यकत्व कहा जा सकता है। गुणस्थान विकास के क्रम में यह स्थिति चतुर्थ गुणस्थान में मिलती है। अवबोधन की अज्ञान दशा में जीव को वस्तु या तत्त्व का यथार्थ बोध नहीं हो पाता। वह सत्-असत् में भेद करने में असमर्थ होता है। यह स्थिति मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान में रहती है। मिथ्यात्व के उपभेद जड़ता की स्थिति को लेकर किये जाते हैं। यहाँ अवबोधन की भ्रम-विभ्रम जैसी स्थितियों को सापेक्ष रखकर और अधिक स्पष्टता की जा सकती है। यथा - मोहाशक्ति व भौतिक पदर्थों में सच्चे सुख की कामना एवं अज्ञान के चलते कुगुरू, कुदेव व कुधर्म में श्रद्धान जड़ता या मूढ़ता का प्रतीक है जिसमें जीव को अपने भले-बुरे का भेद समझ नहीं आता। - मिथ्यात्वी जीवों की जघन्य स्थिति मूर्छा है जिसमें समझ व चेतना का सर्वथा अभाव पाया जाता है। जैन दर्शन में ऐसे जीवों को निगोदिया सूक्ष्म जीवों की श्रेणी में रखा गया है जो अनन्त काल तक इससे बाहर नहीं निकल पाते। - अवबोधन की एक अन्य स्थिति भ्रम है जिसके चलते कार्य-समझ पर आवरण (ज्ञानावरण) आ जाता है और व्यक्ति असत् को ही सत् मानकर मिथयात्व में श्रद्धान कर बैठता है अर्थात् वस्तु कुछ और है उसे समझा कुछ और।
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