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तत्वार्थसूत्र शैली पर बौद्ध परम्परा व योग दर्शन व्यवस्थाओं का भी प्रभाव हो सकता है। बौद्ध दर्शन में आध्यात्मिक विकास की 4 भूमियां, योगवशिष्ठ की 7 स्थितियों की तरह उमास्वामिकृत तत्वार्थसूत्र में आत्मशुद्धि की 10 विधि, चतुर्विधि व सप्तविधि को आधार बनाया गया है। तत्वार्थसूत्र ग्रंथ गुणस्थान की विषयवस्तु से काफी कुछ समानता रखता है। आचार्य कुन्द- कुन्द रचित कसाय पाहुड़ के समान तत्त्वार्थसूत्र में भी गुणस्थान नाम का शब्द नहीं मिलता है। कसाय पाहड़ में उपलब्ध गुणस्थान से सम्बन्धित शब्द मिथ्यादृष्टि, सम्यग् मिथ्यादृष्टि (भिश्र), अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत /विरता-विरत (संयमासंयम) , विरतसंयत उपशान्त कषाय एवं क्षीण मोह की तुलना में तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्-मिथ्यादृष्टि की धारणा नहीं है किन्तु अनन्तवियोजक नाम की अवधारणा है जिसका कसाय पाहुड में अभाव है। तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित नैतिक विकास की यात्रा नियतक्रम में जीव के आरोहण प्रवाह को स्पष्ट करती है। इसमें कहीं से भी जीव के पतनोन्मुख होने का विधान नहीं मिलता। जहाँ उमास्वामिजी ने इस ग्रंथ में यह माना है कि उपशम- उपशान्त- क्षपण व क्षय कर्म विशुद्ध का साधन है वहीं इसका खण्डन गुणस्थान सिद्धान्त में देखने को मिलता है यथादसवें गुणस्थान में जीव यदि नियत कर्मों का उपशम करता है तो ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है जो कि इस यात्रा में पतनोन्मुख होने का अंतिम सोपान है और यदि वह दसवें गुणस्थान में उपशम की जगह उन कर्मों का क्षय करता है तो क्षीण मोह नामक 12वें गुणस्थान में आरोहण कर लेता है जहाँ पर या जहाँ से आगे पतन की सम्भावनाएं समाप्त हो जाती है तथा सिद्धात्म की प्राप्ति निश्चित हो जाती है।
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