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तीर्थंकर नामकर्म के चलते मिथ्यादृष्टि से सयोगकेवली तक शुक्ल लेश्या संभव है। इससे आगे जीव लेश्या रहित है।
षट्लेश्या
इन छः लेश्याओं में तारतम्यता दिखलाने के लिए प्रसिद्ध उदाहरण है- छः पुरुष जामुन खाने चले। फलों से लदे जामुन का वृक्ष देखकर उनमें से एक कहता है कि लो भाई यह रहा जामुन का पेड़ चलो इसे धराशाही कर दे और मन चाहे फल खाएं। दूसरे ने कहा कि वृक्ष को काटने से क्या लाभ ? चलो इसकी मोटी मोटी शाखाएं ही काट लेते हैं। तीसरा बोला शाखाओं को काटने की क्या आवश्यकता है ? टहनियां ही काट लेना काफी होगा। चौथे ने कहा कि फलों के गुच्छे ही तोड़ लो। पाँचवा बोला हमें तो जामुन ही चाहिए तो वही क्यों न तोड़ लें। छठे का मत था कि मुझे तो तुम लोगों की बात नहीं जची जब हमें पके फल ही चाहिए तो नीचे गिरे हुए ही फल क्यों न बीन के खालें ? इन छ: लेश्याओं के परिणमन को उक्त उदाहरण भलीभाँति स्पष्ट करता है। प्रथम तीन कृष्ण नील कपोत है जिनमें किलिष्ट परिणामों की तीव्रता कम हो जाती है अर्थात् विनाश का प्रभाव कुछ कम होता जाता है। अंतिम तीन पीत पद्म और शुक्ल लेश्याएं हैं जो उत्तरोत्तर भावों की उत्कृष्टता अर्थात् परिणामों की निर्मलता प्रकट करती हैं। नरकों में लेश्या
काऊ काऊ तह काऊनील नीला य नीलकिण्हा य । किण्हा य परमकिण्हा लेसा रयणप्पभाइणं || 72 || जीवसमास।।
काऊ काऊ तह काऊ -णील णीला य णील-किण्हा य ।
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