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(9) दर्शन मार्गणा
चरिंदुयाइ छउमें चक्खु अचक्खू य सव्व छउमत्थे।
सम्मे य ओहिदंसी केवलदंसी सनामे य||69।। जीवसमास चक्षु, अचक्षु, अवधि एवं केवल दर्शन ये चार भेद दर्शन मार्गणा के हैं। गुणस्थान श्रेणी व दर्शन मार्गणा की उपस्थिति सम्बन्धी विधान इस प्रकार है- मिथ्यादृष्टि से क्षीण मोह गणस्थान तक (1 से 12)- चक्ष -अचक्ष (2) दर्शन संभव हैं। - अविरत सम्यग्दृष्टि से क्षीण मोह गुणस्थान तक (4 से 12) अवधि दर्शन संभव है। - सयोग और अयोग केवली गुणस्थान में ही (13 से 14) केवल दर्शन संभव होता है।
चक्षुरनिद्रियाभ्याम्।। त. सू. अ-1।। चक्षु दर्शन उपयोग वाले जीव चतुरेन्द्रिय से लेकर क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ वीतराग गुणस्थान तक होते हैं। अचक्षु दर्शन छद्मस्थधारियों को होता है किन्तु चतुरिन्द्रिय लेकर छद्मस्थ अवस्था तक के प्रणियों को चक्षु दर्शन ही होता है। सम्यग्दृष्टि में अवधि दर्शन तथा केवली में केवल दर्शन होता है। (10) लेश्या मार्गणागुणस्थानों की उत्पत्ति मोहनीय कर्म (कषाय) और योग के बलाबल के अनुसार होती है। कषाय के उदय से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। “कर्मस्कन्धैरात्मानं निम्पतीति लेश्या" अर्थात् जो कर्म स्कन्धों से आत्मा को लिप्त करती है इसे लेश्या कहते
लिप्पइ अप्पीकीरई एयाए (एवीए) णिय अप्पुण पुण्णं च ।
जीवोत्ति होवि लेस्सा लेस्सागण जाण यक्खादा || 2 || षटखण्डागम जिसके द्वारा जीव अपने को पुण्य- पाप से लिप्त करे अथवा उनको अपने साथ एकरूप करे (आत्मी क्रीयते), उसे लेश्या कहते हैं। इसी क्रम में कहा जा सकता है कि कषाय का उदय छ प्रकार का होता है- तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर और मन्दतम। परिपाटीक्रम में लेश्याएं भी छः हो जाती हैं- कृष्ण, नील, कपोत, तेज या पीत, पद्म और शुक्ल।
किण्हा नीला काऊ अविरयसम्मंतसंजयंत पर। तऊ पम्हा सण्णप्पमायसुक्का सजोगता।।70||जीवसमास
चंडो ण मुयदि वेरं भंडण-सीलोय धम्म दथ रहियो। दुह्रो ण य एदि वसं लक्खणभेदं तु किष्हस्स || 200|| धवलासार
___ मंदो बुद्धि विहीणो णिविण्णाणी य विसप लोलोय।
माणी मायी य तहा आलस्सो चेय भेज्जो य || 201|| धवलासार कृष्ण, नील, कापोत और तेजो (पीत) पद्म तथा शुक्ल इन छः लेश्यओं में प्रथम तीन - मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक संभव हैं। और अंतिम तीन लेश्याओं में से मिथ्यादृष्टि से अप्रमत्त गुणस्थान तक- तेजो और पद्म लेश्या की सम्भावना रहती है तथा